श्री लाल बहादुर शास्त्री भारत के दूसरे प्रधानमन्त्री

श्री लाल बहादुर शास्त्री

कार्यकाल

प्रधानमंत्री - 9 जून, 1964 – 11 जनवरी, 1966 
विदेश मंत्री - 9 जून 1964 - 18 जुलाई 1964
रेल मंत्री - 13 मई 1952 - 7 दिसंबर 1956
राजनीति दल -   कॉन्‍ग्रेस
श्री लाल बहादुर शास्त्री का जन्म 2 अक्टूबर 1904 को उत्तर प्रदेश के वाराणसी से सात मील दूर एक छोटे से रेलवे टाउन, मुगलसराय में हुआ था। उनके पिता एक स्कूल शिक्षक थे। जब लाल बहादुर शास्त्री केवल डेढ़ वर्ष के थे तभी उनके पिता का देहांत हो गया था। उनकी माँ अपने तीनों बच्चों के साथ अपने पिता के घर जाकर बस गईं।

उस छोटे-से शहर में लाल बहादुर की स्कूली शिक्षा कुछ खास नहीं रही लेकिन गरीबी की मार पड़ने के बावजूद उनका बचपन पर्याप्त रूप से खुशहाल बीता।

उन्हें वाराणसी में चाचा के साथ रहने के लिए भेज दिया गया था ताकि वे उच्च विद्यालय की शिक्षा प्राप्त कर सकें। घर पर सब उन्हें नन्हे के नाम से पुकारते थे। वे कई मील की दूरी नंगे पांव से ही तय कर विद्यालय जाते थे, यहाँ तक की भीषण गर्मी में जब सड़कें अत्यधिक गर्म हुआ करती थीं तब भी उन्हें ऐसे ही जाना पड़ता था।

बड़े होने के साथ-ही लाल बहादुर शास्त्री विदेशी दासता से आजादी के लिए देश के संघर्ष में अधिक रुचि रखने लगे। वे भारत में ब्रिटिश शासन का समर्थन कर रहे भारतीय राजाओं की महात्मा गांधी द्वारा की गई निंदा से अत्यंत प्रभावित हुए। लाल बहादुर शास्त्री जब केवल ग्यारह वर्ष के थे तब से ही उन्होंने राष्ट्रीय स्तर पर कुछ करने का मन बना लिया था।

गांधी जी ने असहयोग आंदोलन में शामिल होने के लिए अपने देशवासियों से आह्वान किया था, इस समय लाल बहादुर शास्त्री केवल सोलह वर्ष के थे। उन्होंने महात्मा गांधी के इस आह्वान पर अपनी पढ़ाई छोड़ देने का निर्णय कर लिया था। उनके इस निर्णय ने उनकी मां की उम्मीदें तोड़ दीं। उनके परिवार ने उनके इस निर्णय को गलत बताते हुए उन्हें रोकने की बहुत कोशिश की लेकिन वे इसमें असफल रहे। लाल बहादुर ने अपना मन बना लिया था। उनके सभी करीबी लोगों को यह पता था कि एक बार मन बना लेने के बाद वे अपना निर्णय कभी नहीं बदलेंगें क्योंकि बाहर से विनम्र दिखने वाले लाल बहादुर अन्दर से चट्टान की तरह दृढ़ हैं।

लाल बहादुर शास्त्री ब्रिटिश शासन की अवज्ञा में स्थापित किये गए कई राष्ट्रीय संस्थानों में से एक वाराणसी के काशी विद्या पीठ में शामिल हुए। यहाँ वे महान विद्वानों एवं देश के राष्ट्रवादियों के प्रभाव में आए। विद्या पीठ द्वारा उन्हें प्रदत्त स्नातक की डिग्री का नाम ‘शास्त्री’ था लेकिन लोगों के दिमाग में यह उनके नाम के एक भाग के रूप में बस गया।

1927 में उनकी शादी हो गई। उनकी पत्नी ललिता देवी मिर्जापुर से थीं जो उनके अपने शहर के पास ही था। उनकी शादी सभी तरह से पारंपरिक थी। दहेज के नाम पर एक चरखा एवं हाथ से बुने हुए कुछ मीटर कपड़े थे। वे दहेज के रूप में इससे ज्यादा कुछ और नहीं चाहते थे।

1930 में महात्मा गांधी ने नमक कानून को तोड़ते हुए दांडी यात्रा की। इस प्रतीकात्मक सन्देश ने पूरे देश में एक तरह की क्रांति ला दी। लाल बहादुर शास्त्री विह्वल ऊर्जा के साथ स्वतंत्रता के इस संघर्ष में शामिल हो गए। उन्होंने कई विद्रोही अभियानों का नेतृत्व किया एवं कुल सात वर्षों तक ब्रिटिश जेलों में रहे। आजादी के इस संघर्ष ने उन्हें पूर्णतः परिपक्व बना दिया।

आजादी के बाद जब कांग्रेस सत्ता में आई, उससे पहले ही राष्ट्रीय संग्राम के नेता विनीत एवं नम्र लाल बहादुर शास्त्री के महत्व को समझ चुके थे। 1946 में जब कांग्रेस सरकार का गठन हुआ तो इस ‘छोटे से डायनमो’ को देश के शासन में रचनात्मक भूमिका निभाने के लिए कहा गया। उन्हें अपने गृह राज्य उत्तर प्रदेश का संसदीय सचिव नियुक्त किया गया और जल्द ही वे गृह मंत्री के पद पर भी आसीन हुए। कड़ी मेहनत करने की उनकी क्षमता एवं उनकी दक्षता उत्तर प्रदेश में एक लोकोक्ति बन गई। वे 1951 में नई दिल्ली आ गए एवं केंद्रीय मंत्रिमंडल के कई विभागों का प्रभार संभाला – रेल मंत्री; परिवहन एवं संचार मंत्री; वाणिज्य एवं उद्योग मंत्री; गृह मंत्री एवं नेहरू जी की बीमारी के दौरान बिना विभाग के मंत्री रहे। उनकी प्रतिष्ठा लगातार बढ़ रही थी। एक रेल दुर्घटना, जिसमें कई लोग मारे गए थे, के लिए स्वयं को जिम्मेदार मानते हुए उन्होंने रेल मंत्री के पद से इस्तीफा दे दिया था। देश एवं संसद ने उनके इस अभूतपूर्व पहल को काफी सराहा। तत्कालीन प्रधानमंत्री पंडित नेहरू ने इस घटना पर संसद में बोलते हुए लाल बहादुर शास्त्री की ईमानदारी एवं उच्च आदर्शों की काफी तारीफ की। उन्होंने कहा कि उन्होंने लाल बहादुर शास्त्री का इस्तीफा इसलिए नहीं स्वीकार किया है कि जो कुछ हुआ वे इसके लिए जिम्मेदार हैं बल्कि इसलिए स्वीकार किया है क्योंकि इससे संवैधानिक मर्यादा में एक मिसाल कायम होगी। रेल दुर्घटना पर लंबी बहस का जवाब देते हुए लाल बहादुर शास्त्री ने कहा; “शायद मेरे लंबाई में छोटे होने एवं नम्र होने के कारण लोगों को लगता है कि मैं बहुत दृढ नहीं हो पा रहा हूँ। यद्यपि शारीरिक रूप से में मैं मजबूत नहीं है लेकिन मुझे लगता है कि मैं आंतरिक रूप से इतना कमजोर भी नहीं हूँ।”

अपने मंत्रालय के कामकाज के दौरान भी वे कांग्रेस पार्टी से संबंधित मामलों को देखते रहे एवं उसमें अपना भरपूर योगदान दिया। 1952, 1957 एवं 1962 के आम चुनावों में पार्टी की निर्णायक एवं जबर्दस्त सफलता में उनकी सांगठनिक प्रतिभा एवं चीजों को नजदीक से परखने की उनकी अद्भुत क्षमता का बड़ा योगदान था।

तीस से अधिक वर्षों तक अपनी समर्पित सेवा के दौरान लाल बहादुर शास्त्री अपनी उदात्त निष्ठा एवं क्षमता के लिए लोगों के बीच प्रसिद्ध हो गए। विनम्र, दृढ, सहिष्णु एवं जबर्दस्त आंतरिक शक्ति वाले शास्त्री जी लोगों के बीच ऐसे व्यक्ति बनकर उभरे जिन्होंने लोगों की भावनाओं को समझा। वे दूरदर्शी थे जो देश को प्रगति के मार्ग पर लेकर आये। लाल बहादुर शास्त्री महात्मा गांधी के राजनीतिक शिक्षाओं से अत्यंत प्रभावित थे। अपने गुरु महात्मा गाँधी के ही लहजे में एक बार उन्होंने कहा था – “मेहनत प्रार्थना करने के समान है।” महात्मा गांधी के समान विचार रखने वाले लाल बहादुर शास्त्री भारतीय संस्कृति की श्रेष्ठ पहचान हैं।

भारतीय शिक्षा-दर्शन में रवीन्द्रनाथ टैगोर का योगदान

भारतीय शिक्षा-दर्शन में रवीन्द्रनाथ टैगोर का योगदान


 रचनाओं के कारण ही भारत के बाहर के देशों के लाखों मनुष्य हमारे देश और उनकी संस्कृति का आदर करते । उन्होंने हमारे देश में जन्म लिया, इसका अर्थ होता है कि ईश्वर हमसे निराश नहीं है । "
गुरूदेव एक रहस्यवादी एवम् कवि हृदय व्यक्ति थे। रवीन्द्रनाथ प्रतिभा के मूर्तरूप थे। इन्होंने अपनी लेखनी से साहित्य के विभिन्न अंगो की पृश्टि की और नवीन रचनाओं से साहित्य - कोश को सम्पन्न बनाया। काव्य, नाटक, कहानी, आलोचक, बाल साहित्य और चित्रकला आदि सभी विषयों पर रचनाएं की और इन सभी क्षेत्रों में उन्हें अद्वितीय सफलता प्राप्त हुई। अपने जीवन के अन्त तक कवि कर्म में व्यस्त रहे । 'संध्या संगीत', 'प्रभात संगीत', 'प्रकृति प्रतिशोध', 'कल्पना', 'सिन्धु', आदि रवीन्द्र जी के प्रसिद्ध ग्रन्थ हैं। 70 साल की अवस्था में उन्होंने चित्रकला की ओर रूचि प्रदर्शित की। इनके बनाये अनेक चित्र हैं, जिससे इनकी कला कुशलता का परिचय मिलता है।

आधुनिक भारत के निर्मताओं में रवीन्द्रनाथ टैगोर का महत्वपूर्ण स्थान है । इनके अनेकानेक योगदान भी अपनी अलग विशेषता रखते हैं। आध्यात्मिक और सांस्कृतिक क्षेत्रों में तो मुख्य रूप से देन है ही, पर वे उन्हीं तक सीमित नहीं है। एक रचनात्मक साहित्यकार के रूप में उनका योगदान इतना सुखीदित है कि उसके विस्तार से उल्लेख करने की आवश्यकता नहीं है। वस्तुतः वे एक संवेदनशील मानववादी स्वतन्त्रता एवं व्यक्ति की गरिमा उनके चिन्तन के महत्त्वपूर्ण आयाम है।

टैगोर युगदृष्टा एवं पुरुष थे भारत के ही नहीं, प्रत्युत विश्व के प्रतिभाशाली व्यक्ति थे। रवीन्द्रनाथ टैगोर ने विश्व में भारत के मस्तक को ऊँचा स्थान दिलाया। उनका विराट था- एक साथ ही कवि, नाटककार, कथाकार, उपन्यासकार, शिक्षाविद और महान मानवतावादी के रूप में इतिहास द्वारा वे सदा समादृत रहेंगे। महात्मा गांधी ने रवीन्द्रनाथ टैगोर को महान संस्कृति रक्षक कहा था । काउन्ट की सरलिंग ने लिखा है कि टैगोर अत्यधिक सार्वभौमिक, विचारशील तथा पूर्ण व्यक्ति थे। उनकी विचारधारा ने विश्व को अनुप्राणित किया और अन्तर्राष्ट्रीय जगत में तो उनका योगदान अविस्मरणीय ही है ।"
आदर के साथ उन्हें गुरुदेव के नाम से पुकारा जाता है। वे जन्मना और कर्मणा के महान विभूति थे स्वस्थ, निर्मलकाया, उच्चललाट ऋषियों की भाँति अविरल और सुदीर्घ दाढ़ियां उनके व्यक्तित्व पर वंशानुगत एवं तत्कालीन दशाओं के प्रभाव पड़े थे।

वे एक राजनीतिज्ञ तो नहीं थे लेकिन समय-समय पर उनका सवेंदनशील ह्रदय देश की गम्भीर राजनैतिक घटनाओं पर अपनी प्रतिक्रिया दिखाये बिना रह सकता था। इसी कारण टैगोर जी ने 1905 ई0 में बंगाल विभाजन का विरोध किया। 1905 ई0 के बंगमंग विरोधी आन्दोलन में गहराई से भाग लिया सन् 1919 ई० में जलियावाला बाग के नरसंहार सिर की उपाधि लौटा दी। उनके सामाजिक विचार उनके मानवतावाद की सहज अभिव्यक्ति है । टैगोर मूलतः आध्यात्मिक धरातल से जुड़े थे यही कारण है कि वे नैतिकता युक्त (अर्थात् धर्मयुक्त) राजनैतिक के पक्ष में थे ऐसी नैतिकता को जो विवेकसम्मत हो। उनके लिए धर्म की अवधारणा उच्च मानवीय मूल्यों से जुड़ी थी। इस टैगोर बिना धर्म की राजनीति की कल्पना नहीं करते हैं।

स्मरणीय हैं कि गुरू रवीन्द्रनाथ टैगोर न तो राजनीतिक थे और नहीं राजनीतिक दर्शन । वे एक देशभक्त और मानवता के प्रेमी थे। उन्हें पराधीनता से कष्ट था। चूँकि वे व्यक्ति के गौरव को विशेष महत्व देते थे। अतः आत्मनिर्भरता एवं स्वावलम्बन का संदेश उन्होंने दिया। टैगोर नारी को पुरूषों के बराबर स्थान दिलाने की कामना करते थे । उन्होंने शान्तिनिकेतन में विश्व भारती की स्थापना करते समय बालकों के साथ-साथ बालिकाओं की भी सह शिक्षा का प्रबन्ध किया।
टैगोर के अनुसार मानव आत्मा स्वायत्त है यह स्वायत्तता को पुनः प्राप्त किया जा सकता है।

टैगोर की स्वतन्त्रता सम्बन्धी अवधारणा राजनीतिक चिन्तन की अमूल्य देन कही जाती है गुरुदेव मानव प्रकृतिगत विकास के समर्थक थे। इसलिए आत्मिक स्वतन्त्रता पर उन्होंने बल दिया। टैगोर मानवधिकारों के प्रबल समर्थक थे वे प्राकृतिक अधिकारों के समर्थक थे, और व्यक्ति के प्राकृतिक अधिकारों में राज्य के हस्तक्षेप को वे अनुचित ठहराते थे। उनका कहना था कि मनुष्य को दूसरे व्यक्तियों के साथ आत्मीय एकता का अनुभव करना चाहिए। इससे अधिकारों का संघर्श मिट जाता है।

टैगोर का राज्य तथा इसकी संस्थाओं में घोर अविश्वास था, टैगोर इसके प्रभाव को परिसीमित किये जाने के समर्थक थे इस प्रकार ये कल्याणकारी राज्य के भी आलोचक थे। टैगोर मानते थे कि राज्य को जनमानस को शक्ति एवं प्रेरणा देनी चाहिए परन्तु इसे अपने ऊपर उन कार्यों को नहीं लेना चाहिए जिन्हें करने का उत्तरदायित्व जनमानस का है। टैगोर ने भारत के दर्शन गांवों में किये थे। उन्होंने देखा कि सच्चा भारत तो गाँवों में बसता है। पर वहाँ गरीबी, अशिक्षा, अज्ञान, बीमारी आदि फैली है। टैगोर इसे देखकर रो दिये।

उन्होंने ग्राम सुधार का बीड़ा उठाया। जगह-जगह जाकर उन्होंने ग्राम सुधार की बात कही। रवीन्द्रनाथ टैगोर मनुष्य को परमात्मा की सर्वश्रेष्ठ कृति मानते थे । उन्होंने कलकत्ता विश्वविद्यालय एक व्याख्यान माला के अन्तर्गत कहा था "मनुष्य का दायित्व महामानव का दायित्व है जिसकी कही सीमा नहीं है जन्तुओं का वास भू-मंडल पर है, मनुष्य का वास वहां है जिसे देश कहते हैं और यह देश केवल भौमिक नहीं अपितु मानसिक है। मनुष्य - मनुष्य के मिलने से यह देश बनता है यह मिलन ज्ञान एवं कर्म में है।

यद्यपि रवीन्द्रनाथ टैगोर वर्णाश्रय धर्म के समर्थक थे, किन्तु उन्होंने ऊँच-नीच और छुआ-छूत को कभी स्वीकार नहीं किया उनकी यह पक्की धारणा थी कि वर्णाश्रय धर्म हिन्दुओं का आर्दश समाज धर्म है किन्तु जाति भेद को वे एक विकृत मानते थे। टैगोर की दृष्टि विश्व एकता की अनुभूति से अनुप्राणित था उनका मंतव्य था कि राष्ट्रीयता के कारण विश्व-प्रेम विकसित नहीं हो पाता है, उन्होंने ""वसुधैव कुटुम्बकम्" का समर्थन किया और भारत तथा विश्व की समस्याओं के समाधान के लिए उन्होंने अन्तर्राष्ट्रीवाद की धारणा को प्रतिपादित किया। वे समूचे विश्व को राष्ट्र की डोर में बाँधना चाहते थे ।

स्मरणीय है कि गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर मानवतावाद के पुरोधा एवं प्रवक्ता थे। वे पूर्व तथा पश्चिम का संगम चाहते थे। 1921 ई0 में उनके द्वारा विश्वभारती की स्थापना का यही प्रयोजन था। उन्होंने कहा था कि इसका प्रयोजन पूर्व तथा पाश्चात्य के संगम के अध्ययन के संयुक्त समागम में सत्य की अनुभूति करना तथा दो गोलार्दो के मध्य विचारों स्वतन्त्र आदान-प्रदान के द्वारा विश्व शान्ति की मूल संभावनाओं को सशक्त करना है।

शिक्षा सम्बन्धी अवधारणाः- रवीन्द्रनाथ टैगोर का कथन था कि, "शिक्षा का सम्पर्क हमारे जीवन आर्थिक, बौद्धिक, सौन्दर्यात्मक, सामाजिक एवं आध्यात्मिक जीवन मे होना चाहिए।" वे एक सन्त एवं महान् कर्मयोगी थे वे शिक्षा को साधन मानते थे विद्या के आलोक से वे विशिष्ट रूप से आलोकित हुए थे शिक्षा के माध्यम से आत्मनिर्भर एवं आध्यात्मिक रूप से सुव्यवस्थित व्यक्तित्व का निर्माण करना चाहते थे। वे शिक्षा के द्वारा अविद्या समाप्त करना चाहते थे। शिक्षा ऐसी होनी चाहिए कि जो आम आदमी के कल्याण से जुड़ी हो और समाज की उन्नति की आधारशिला हो वे नहीं चाहते थे कि शिक्षा में राजनीति का प्रवेश हो उनका मन्तव्य था कि "व्यक्ति की सच्ची मुक्ति अविद्या या अज्ञान से मुक्ति है।" शिक्षा एक व्यक्ति को सुसंस्कृति नागरिक बनाती है और उसमें राष्ट्रीय उत्तरदायित्व की भावना जागृत करती है। वर्तमान स्कूली शिक्षा उच्च लक्ष्य की प्राप्ति के लिए अनुपयुक्त है, ऐसी उनकी मान्यता थी। यह प्रणाली सुनागरिक तैयार करने में असमर्थ है उनके मन में धन के प्रति मोह है।

शिक्षा के माध्यम के सन्दर्भ में उनका विचार था कि विचारों के आदान प्रदान की ऐसी व्यवस्था य पद्धति होनी चाहिए, जिसमें बच्चे को अधिक प्रयास करने की आवश्यकता न हो, साथ संप्रेशण को शिक्षार्थी ग्रहण कर सके और इस कार्य को मातृभाषा आसानी से कर सकती है। टैगोर अंग्रेजी को इसका विकल्प नहीं मानते थे अंग्रेजी शिक्षा को दे अनुचित एवं अपर्याप्त मानते थे। उनका कहना था कि मातृभाषा में सम्प्रेशणीयता की शक्ति अधिक होती है विश्वविद्यालय शिक्षा को वे दोशपूर्ण एवं प्रयोजन में असफल मानते थे। उनका विचार था कि विद्यार्थियों को भारतीय इतिहास, दर्शन, साहित्य एवं धर्म की शिक्षा दी जानी चाहिए और भारतीयता का विशेष रूप से संम्प्रेशण होना चाहिए ललित कला को वे सभ्यता का अंग मानते थे संगीत को राष्ट्रीय अभिव्यक्ति का सर्वोच्च अंग माना है। शिक्षा का आधार आर्थिक होना चाहिए।

टैगोर का स्वभाव सामाजिक दर्शन उनके सुसंस्कृत परिवार बुद्धि, उपनिषद की शिक्षाओं एवं राजा राममोहन राय के विचारों से प्रभावित था। साथ ही पाष्चात्य लेखकों एवं कवियों की कृतियों का भी उस पर प्रभाव है। टैगोर की अवधारणा थी कि ईश्वर पृथ्वी पर कठोर कर्म करने वालों, पत्थर तोड़ने वाले श्रमिकों के हृदय में वास करता है। मोक्ष के सन्दर्भ में उनकी मान्यता थी कि मोक्ष जैसी कोई वस्तु नहीं है क्योंकि ईश्वर ने हमारा सृजन किया है और सदैव हमारे साथ आबद्व है ।

टैगोर भारत के सांस्कृतिक पुनरूत्थान के अग्रदूत थे। राधाकृष्ण के शब्दों में, रवीन्द्रनाथ आधुनिक भारत के नव जागरण के सबसे बड़े व्यक्ति थे कई पीढ़ियों से हमें उनके जैसा कवि नहीं मिला वह एक बड़े पैगम्बर, समपुदेश्टा तथा हमारी भावी भाग्य के पथ-प्रदर्शक थे। उन्होंने हमारे देश में जन्म लिया, इसका अर्थ है कि ईश्वर हमसे निराश नहीं है।

टैगोर की विचारधारा में आदर्शवाद स्पष्ट रूप से प्रतिबिम्बित होता है। इनके अनुसार शिक्षा व्यक्ति का शारीरिक, बौद्धिक, नैतिक और आत्यात्मिक विकास वैयक्तिक एवं सामाजिक दृष्टिकोण से है। उन्होंने अपनी पुस्तक पर्सनालिटी में लिखा है कि, "उच्चतम शिक्षा वह है जो हमारे जीवन को सभी अस्तित्वों के साथ संगतिपूर्ण बनाती है।" टैगोर भारतीय आदर्श को भी लिया जिसमें सा विद्या या विमुक्तये है। इस कथन का तात्पर्य यह लगाया है कि शिक्षा का अर्थ केवल आध्यात्मिक ज्ञान से नहीं है, न तो मुक्ति का अर्थ मुक्ति की बात से है। ज्ञान के अन्तर्गत मानव जाति के हित के लिए काम आने वाले सभी ज्ञान और प्रशिक्षण है, तथा मुक्ति का अर्थ वर्तमान जीवन में सभी प्रकार की दासता से मुक्ति है। ऐसी दासता आर्थिक, सामाजिक, राजनैतिक एवं मानसिक हो सकती हैं, इनसे मुक्ति ही वास्तविक शिक्षा है भौतिक दृष्टि से गुरूदेव ने शिक्षा को इस प्रकार परिभाषित किया है- "वास्तविक जीवन की रक्षा करने में सहायता करती है।

निश्कर्ष रूप से कहा जा सकता है कि व्यक्ति के सम्पूर्ण जीवन को विकसित करना शिक्षा है, यह वह साधन है जिसके द्वारा पूर्ण मानव के रूप व्यक्ति विकसित होता है, जिसके द्वारा व्यक्ति प्राणिमात्र से प्र प्रेम करना सीखता है और विश्व बन्धुत्व स्थापित करता है।

रवीन्द्रनाथ टैगोर के अनुसार शिक्षा का उद्देश्य टैगोर ने शिक्षा के कई उददेश्य बताये है जिससे व्यक्तित्व के विभिन्न अंगों के विकास का सम्बन्ध है ।
 इस प्रकार सब पहलुओं से उद्देश्यों को निश्चित किया है।

1. शारीरिक विकास का उद्देश्यः- उनका विचार है कि सबसे पहले प्रत्येक बालक का शारीरिक स्वास्थ्य अच्छा होना चाहिए और खेद प्रकट किया था कि, "पर्याप्त खेल और व्यायाम तथा भोजन के न होने से बंगाली बालक का शरीर अधपोशित रहता है और उसका मस्तिष्क अविकासति रहता है।" इसलिए उन्होने प्रकृति की गोद में खेलने-कूदने, तालाब में नहाने, फूल चुनने, पेड़ पर चढ़ने तथा इन क्रियाओं में आन्नद प्राप्त करने के लिए बच्चों को स्वतन्त्र अवसर देने के लिए कहा है साथ ही साथ उन्हें उचित भोजन भी दिया जाये ।
2. बौद्धिक विकास का उद्देश्य:- बौद्धिक विकास में विचार, चिन्तन, तर्क, स्मरण, कल्पना, बुद्धि आदि मानसिक शक्ति को व्यवहार में लाने की क्षमता भी बालकों को देनी चाहिए तभी उसका मानसिक विकास सही ढंग से बुद्धि एवं प्रज्ञा का प्रयोग किया जाता है।
3. नैतिक एवं आध्यात्मिक विकास का उद्देश्य:- टैगोर कवि एवं दृश्टा के रूप में नैतिक एवं आध्यात्मिक विकास को विश्व व्यापक आधार पर प्राप्त करने के लिए जोर देते है। नैतिकता के लिए उन्होंनें ब्रह्मचर्य, अनुशासन, शान्तवास, ध्यान एवं साधना को आवश्यक बताया ।
4. व्यावसायिक विकास का उद्देश्य:- टैगोर ने 'स्वाधीन शिक्षा' लेख में उन्होंने प्रकट किया है कि शुरू से ही लोगों को इस प्रकार की शिक्षा प्रदान की जाय कि वे अच्छी तरह जान जायें कि जन-कल्याण क्या है तथा वे सभी दृष्टियों से अपनी आजीविका कमाने के व्यवहारतः योग्य हो जायें।
5. व्यक्तिगत एवं सामाजिक विकास का उद्देश्य:- टैगोर का विचार है कि व्यक्तिगत विकास का उददेश्य पहले होना चाहिए और बाद में वह समाजगत विकास में बदल दिया जायें। टैगोर ने लिखा है कि, "जब तक मैं अपने आप को स्वतन्त्र न कर लूँ, तब तक मैं किसी दूसरे को स्वतन्त्र नहीं कर सकूँगा । "
6. सांस्कृतिक विकास का उद्देश्य टैगोर अपनी संस्कृति में पश्चिमी ज्ञान और विज्ञान को आत्मसात करना चाहते थे वे केवल भौतिक समृद्धि और पश्चिमी संस्कृति की अंधी नकल के खिलाफ थे। वे आध्यात्मिक और नैतिक सामंजस्य के माध्यम से भौतिक और सांस्कृतिक समृद्धि चाहते थे।

पाठ्यक्रम - पाठ्क्रम में भाषा और साहित्य, मातृभाषा अंग्रेजी, अन्य भाषाएं - देशी-विदेशी, ग्रीक, लैटिन, फ्रेंच, जर्मन, चीनी, जापानी, रूसी, अरबी, फारसी, संस्कृत, उर्दू, गणित, विज्ञान, रसायन, भौतिक, जीव-जन्तु, प्रकृति अध्ययन, स्वास्थ्य रक्षा, इतिहास (देशी एवं विश्व ) राजनीति, अर्थशास्त्र, समाजशास्त्र, भूगोल, भूर्गशास्त्र, कलां, संगीत, नृत्य, कृषि एवं टेक्निकल विषय दर्शनय धर्म, मनोविज्ञान तथा उपयोगी क्रियाएं जैसे- अभिनय, भ्रमण, बागवानी, प्रादेशिक अध्ययन, प्रयोगशाला कार्य, चित्रण, रचना प्रदर्शिनी संग्रह, खेल-कूद, व्ययाम धार्मिक क्रियाएं आत्मानुशासन, नाटक, संगीत नृत्य आदि सम्मिलित किये है।

शिक्षण विधिः- गुरूदेव ने शिक्षण की प्राचीन और तत्कालीन विधियों को कई रूपों में प्रयोग किया है। क्रिया विधि, मौखिक विधि, स्वास्थ्य विधि, प्रयोग विधि, तर्क एवं वाद विधि, साधारण सामग्री द्वारा शिक्षण विधि, गुरू-शिष्य की शिक्षा विधि के द्वारा शिक्षा देने पर विशेष बल दिया।

स्त्री शिक्षा:- स्त्री शिक्षा को उन्होंने केवल व्यक्तिक महत्व की दृष्टि से नहीं देखा बल्कि सामाजिक दृश्टि से देखा है । शान्ति निकेतन में स्त्री शिक्षा विभाग सन् 1908 में आरम्भ हुआ लेकिन बाधाओं के उपस्थित होने से कुछ काल के लिए बन्द कर दिया गया। पुनः सन् 1922 में 'नारी भवन के नाम से आरम्भ किया गया, बाद में इसे "नारी विभाग' कहा गया। जहाँ पर स्त्रियों को पुरूषों के समान और साथ ही शास्त्रीय विषय के अतिरिक्त गृह विज्ञान, पाक कला, सिलाई-कला, सिलाई-कढ़ाई, कला-कौशल, आत्मरक्षा की शिक्षा, समाज सेवा इत्यादि कार्यों की उपयुक्त सुविधाएं है।

विद्यालय टैगोर के विचार से विद्यालय प्राचीन गुरु आश्रमों की भाँती नगर के कोलाहल से दूर प्रकृति की सुरम्य गोद में स्थित होना चाहिए। इनका विश्वास था कि शान्त पर्यावरण में ही शिक्षक और शिक्षार्थी शिक्षा की साधना कर सकते है। इनमें राष्ट्र की सभ्यता एवं संस्कृति की सही शिक्षा व्यवस्था होनी चाहिए। इसके साथ-साथ इनमें अन्तर्राष्ट्रीय महत्व की भाषा एवं संस्कृतियों की शिक्षा व्यवस्था भी होनी चाहिए जिससे विद्यार्थी विश्वबोध कर सकें ।

शिक्षक:- टैगोर के अनुसार अध्यापक को स्वयं ब्रह्मचारी, स्वार्थरहित, एकान्तवासी. सभी ज्ञान से पूर्ण एक अदभुत आत्मा विचारवान् प्रकृति में तथा मनुष्य में महान एवं सुन्दर को परखने, जानने वाला हो जिन्हें वह अपने छात्रों को बड़े उत्साह के साथ प्रदान भी करें। अध्यापक को नम्र होना चाहिए कठोर अध्यापकों को टैगोर ने 'जेल वार्डन, ड्रिल-सार्जेन्ट जन्मजात अत्याचारी शक्ति के भोगी आदि कहा है।

शिक्षार्थी- टैगोर का विचार है कि सर्वप्रथम उसे सादा और प्रकृति जीवन से मुक्त होना चाहिए जिससे उसका शारीरिक एवं मानसिक विकास स्वाभाविक ढंग से हो उसमें कृत्रिमता न आने पाये। विद्यार्थियों के लिए आवश्यक गुण-व्यवहार में विनम्रताए नियमों एवं आज्ञाओं का पालन, उच्चभिलाषा, स्वतन्त्र विचार, भक्ति, तपस्या, साधना, आत्मानुभूति व्यक्ति एवं सामाजिक जीवन में अनुशासन, निन्दनीय असभ्य एवं दोषपूर्ण बातों से दूर रहना इत्यादि जैसे गुण होना चाहिए।

रवीन्द्रनाथ टैगोर का शान्तिनिकेतन तथा विश्व भारती:- शान्ति निकेतन कलकत्ते से दूर उत्तर-पश्चिम की ओर लगभग सौ मील दूर है शान्तिनिकेतन की स्थापना गुरूदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर के पिता महर्षि देवेन्द्रनाथ ने की थी रवीन्द्रनाथ टैगोर ने सन् 1901 ई0 में शान्ति निकेतन विद्यापीठ की स्थापना की। टैगोर का ध्यान उच्चशिक्षा की ओर गया। उच्चा शिक्षा को ही वे आध्यात्मिक उन्नति का साधन मानते थे। विश्वविद्यालय की यांत्रिकता से उन्हें ग्लानिक थी। वे विश्वविद्यालय को ज्ञान का केन्द्र बनाना चाहते थे। 

अतः उन्होनें निम्नलिखित तीन उद्देश्य रखें-
1. पूर्व ओर पश्चिम की भिन्न संस्कृतियों को उनकी मौलिक एकता के आधार पर निकट लाना। 
2. इसी एकता के आधार पर पश्चिम के विज्ञान और संकृति के निकट पहुँचाना। 
3. गाँवों के जीवन में सुख-समृद्धि लोने के लिए ग्रामीण पुनर्रचना के संस्थान की स्थापना करना ।

विश्व - भारती के अन्गर्तत आने वाली प्रमुख संस्थाएं निम्नलिखित हैं- पाठ भवन, शिक्षा भवन विद्या भवन, विनय भवन श्री निकेतन, शिल्प सदन - शिल्प भवन, हिन्दी भवन, कला भवन, संगीत भवन, चीन भवन, श्री सदन तथ इसके अलावा धर्म एवं दर्शन के अध्ययन एवं शोध की व्यवस्था है।
गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर जी का भारतीय शिक्षा दर्शन में योगदान अपनी आने वाली पीढ़ी को मार्गदर्शित करते रहेंगे। उनके शैक्षिक विचार आज भी औचित्यापूर्ण एवं प्रासंगिक है।

सन्दर्भ ग्रन्थ सूची
1. रवीन्द्र दर्शन, कृष्ण राधा
2. टैगोर वर्क्स, विश्व भारती संस्करण खण्ड-13 3. रवीन्द्र जीवनी, प्रभात कुमार मुखेपाध्याय
4. रवीन्द्रनाथ ठाकुर, महेश्वरी मिश्र 5. भारतीय शिक्षा दार्शनिक, कीर्ति देवी सेठ
6. भारत के महान शिक्षाशास्त्री डॉ. राजेंद्र प्रसाद श्रीवास्तव
7. भारतीय सामाजिक विचारक प्रो. पी.सी. जैन एवं नरेन्द्र कुमार
8. गीतांजलि, द इंडियन सोसाइटी, लंदन, 1912 साधना, मैकमिलन, लंदन, 1913

संचार में सांस्कृतिक संस्थानों का क्रम है ?

संचार में सांस्कृतिक संस्थानों का क्रम है ?

संस्कृति: 

संस्कृति लोगों के एक समूह द्वारा बातचीत के माध्यम से साझा किए गए सीखे गए व्यवहार के एक समूह को संदर्भित करती है।
यह कई लक्षणों से उत्पन्न होता है जैसे साझा भाषा या सामाजिक संदर्भ में स्वीकृत व्यवहार की परिभाषा, रिश्तेदारी की धारणा आदि।
संस्कृति का प्रसार आपसी अनौपचारिक बातचीत और विश्वास के आदान-प्रदान के माध्यम से होता है।

1- परिवार
2- स्कूल
3- धर्म
4- जनसंपर्क

परिवार समाज की मूल इकाई के साथ परिवार संस्कृति का पहला प्रभावित करने वाला कारक है क्योंकि व्यक्ति का जन्म होता है और वह अपनी पहचान को अपने पहले परिवार के पहले से मौजूद मानदंडों से संबंधित करता है।

स्कूल को दूसरे घर के रूप में संदर्भित किया जाता है, एक संस्कृति का अगला प्रभावशाली कारक है जहां व्यक्ति सीखता है और अन्य दृष्टिकोणों को समायोजित करता है और स्वयं का पता लगाता है।

धर्म एक वयस्क स्तर पर अपना प्रभाव निभाता है जब व्यक्ति एक महत्वपूर्ण परिपक्व उम्र तक पहुंचता है और उसके लिए दार्शनिक रूप से आत्मनिरीक्षण करना आसान होता है।

जनसंपर्क माध्यम अंतिम चरण है जो संस्कृति को आकर्षक और प्रभावित करने वाली सामग्री के उपयोग के माध्यम से प्रभावित करता है जो समाज के सांस्कृतिक विन्यास को अवचेतन रूप से प्रभावित करता है।


जलवायु परिवर्तन से संबंधित अंतर सरकारी पैनल (IPCC) Intergovernmental Panel on Climate Change पर्यावरण एवं पारिस्थितिकी यूजीसी नेट और यूपीएससी के लिए नोट्स

जलवायु परिवर्तन से संबंधित अंतर सरकारी पैनल (IPCC) [Intergovernmental Panel on Climate Change in Hindi] संयुक्त राष्ट्र की संस्था है जो जलवायु परिवर्तन विज्ञान के अध्ययन के लिए जिम्मेदार है। जलवायु परिवर्तन से संबंधित अंतर सरकारी पैनल (IPCC)  [Intergovernmental Panel on Climate Change] की स्थापना 1988 में विश्व मौसम विज्ञान संगठन (WMO) और संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम (UNEP) द्वारा सबसे हाल की जानकारी का उपयोग करके जलवायु परिवर्तन का आकलन करने के लिए की गई थी।

संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम (United Nations Environment Program - UNEP)


• संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम (UNEP) संयुक्त राष्ट्र की एक विशेष संस्था है, जो पर्यावरणीय गतिविधियों का समन्वय करता है।
• UNEP विकासशील देशों को पर्यावरण की दृष्टि से अच्छी नीतियों और प्रथाओं को लागू करने में भी सहायता प्रदान करता है।
इसकी स्थापना मानव पर्यावरण पर संयुक्त राष्ट्र सम्मेलन के परिणामस्वरूप वर्ष 1972 में हुई थी।
• संयुक्त राष्ट्र एजेंसियों के बीच पर्यावरणीय समस्याओं का समाधान इसकी ज़िम्मेदारी है।
यह जलवायु परिवर्तन को संबोधित करना या मरुस्थलीकरण का मुकाबला करना अन्य संयुक्त राष्ट्र संगठनों जैसे UNFCCC और संयुक्त राष्ट्र कन्वेंशन टू कॉम्बैट डेजर्टिफिकेशन की देखरेख करता है।
यूएनईपी की गतिविधियों में वातावरण, समुद्री और स्थलीय पारिस्थितिक तंत्र, पर्यावरण शासन और हरित अर्थव्यवस्था से संबंधित मुद्दों की एक विस्तृत श्रृंखला शामिल है।
विश्व मौसम विज्ञान संगठन (World Meteorological Organization - WMO) और संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण ने संयुक्त रूप से वर्ष 1988 में इंटरगवर्नमेंटल पैनल ऑन क्लाइमेट चेंज (IPCC) की स्थापना की।
संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण वैश्विक पर्यावरण सुविधा Global Environment Facility (GEF) और मॉन्ट्रियल प्रोटोकॉल के कार्यान्वयन के लिए बहुपक्षीय कोष के लिए कई कार्यान्वयन एजेंसियों में से एक है।
• यह संयुक्त राष्ट्र विकास समूह का सदस्य भी है।
• यूएनईपी ने कई सफलताएं दर्ज की हैं, जैसे कि 1987 मॉन्ट्रियल प्रोटोकॉल, और 2012 मिनामाता कन्वेंशन, जहरीले पारा को सीमित करने के लिए एक संधि ।
संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम (UNEP) द्वारा सौर ऋण कार्यक्रमों के विकास को प्रायोजित और प्रोत्साहित किया जाता है।
• संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण द्वारा प्रायोजित सौर ऋण कार्यक्रम ने
भारत में सौर ऊर्जा प्रणालियों को वित्तपोषित करने में जाता है।
• संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण द्वारा प्रायोजित सौर ऋण कार्यक्रम ने भारत में सौर ऊर्जा प्रणालियों को वित्तपोषित करने में सहायता प्रदान की है।

विश्व मौसम विज्ञान संगठन (WMO) | World Meteorological Organization


• यह एक अंतर सरकारी संगठन है।
• इसमें 191 सदस्य हैं।
इसे 1950 में स्थापित किया गया था।
• WMO मौसम विज्ञान (मौसम और जलवायु), परिचालन जल विज्ञान और संबंधित भूभौतिकीय विज्ञान के लिए संयुक्त राष्ट्र की विशेष एजेंसी है
• इसका मुख्यालय जिनेवा, स्विट्ज़रलैंड में है।
• भारत WMO का सदस्य है।
इसके अधिदेश में मौसम, जलवायु और जल संसाधन शामिल हैं।

आईपीसीसी की पृष्ठभूमि | Background of IPCC


संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम और विश्व मौसम विज्ञान संगठन ने मानव-जनित जलवायु परिवर्तन के खतरों की सराहना करने के लिए आवश्यक वैज्ञानिक, तकनीकी और सामाजिक आर्थिक जानकारी का आकलन करने के लिए 1988 में जलवायु परिवर्तन पर अंतर सरकारी पैनल (IPCC) की स्थापना की।

• यह न तो नए शोध करता है और न ही जलवायु से संबंधित डेटा एकत्र और विश्लेषण करता है।
इसका मूल्यांकन ज्यादातर पीयर- रिव्यू की गई वैज्ञानिक और तकनीकी सामग्री पर आधारित है जिसे प्रकाशित किया गया है।
• इन आकलनों का उद्देश्य अंतरराष्ट्रीय जलवायु नीति और बहस को सूचित करना है।

IPCC की असेसमेंट रिपोर्ट क्या है? | What is the assessment report of IPCC?

• आकलन रिपोर्ट, जिनमें से पहली 1990 में जारी की गई थी,
पृथ्वी की जलवायु का सबसे व्यापक मूल्यांकन है।
• हर कुछ वर्षों में, आईपीसीसी एक आकलन रिपोर्ट (लगभग हर सात साल में) जारी करता है।
• जलवायु परिवर्तन की एक सहमत समझ विकसित करने के लिए सैकड़ों विशेषज्ञ प्रकाशित वैज्ञानिक डेटा के हर महत्वपूर्ण अंश से गुजरते हैं।
• 1995, 2001, 2007 और 2015 में, सैकड़ों पृष्ठों में फैली चार अनुक्रमिक मूल्यांकन रिपोर्ट तैयार की गईं।
ये जलवायु परिवर्तन के प्रति वैश्विक प्रतिक्रिया का आधार बने
• इन वर्षों में, प्रत्येक मूल्यांकन रिपोर्ट ने नए साक्ष्य, सूचना और डेटा को जोड़ते हुए, पिछले एक के काम पर बनाया है।
नतीजतन, जलवायु परिवर्तन और इसके परिणामों पर अधिकांश निर्णयों में अब पहले की तुलना में काफी अधिक में स्पष्टता, आत्मविश्वास और नई जानकारी का खजाना है।
• इन बहसों ने पेरिस समझौते और उससे पहले, क्योटो प्रोटोकॉल का नेतृत्व किया।
पांचवीं आकलन रिपोर्ट के जवाब में, पेरिस समझौते पर बातचीत हुई थी।
मूल्यांकन रिपोर्ट तीन वैज्ञानिक कार्य समूह उन्हें बनाते हैं।
कार्यकारी समूह । का संबंध जलवायु परिवर्तन के वैज्ञानिक आधार से है।
वर्किंग ग्रुप || संभावित प्रभावों, कमजोरियों और अनुकूली समस्याओं को देखता है।
कार्य समूह III संभावित जलवायु परिवर्तन शमन विधियों से संबंधित है।


हालिया आईपीसीसी की छठी आकलन रिपोर्ट | Recent IPCC Report Sixth Assessment Report


आईपीसीसी (IPCC) अब अपने छठे मूल्यांकन चक्र में है, अपने तीन कार्य समूहों और एक संश्लेषण रिपोर्ट, तीन विशेष रिपोर्ट, और अपनी सबसे हालिया कार्यप्रणाली रिपोर्ट में संशोधन के योगदान के साथ छठी मूल्यांकन रिपोर्ट (AR 6) का मसौदा तैयार कर रहा है।

आईपीसीसी वर्तमान में अपनी छठी आकलन रिपोर्ट को अंतिम रूप दे रहा है। रिपोर्ट जलवायु परिवर्तन के वैज्ञानिक, तकनीकी और सामाजिक पहलुओं पर एक अपडेट प्रदान करती है।
छठी मूल्यांकन रिपोर्ट किश्तों में जारी की जा रही है, जिसमें कार्य समूहों द्वारा व्यक्तिगत रिपोर्ट तैयार की गई है।
• अंतिम भाग एक संश्लेषण रिपोर्ट है, जो जलवायु परिवर्तन अनुसंधान और ज्ञान का सार प्रस्तुत करती है।
• यह वर्किंग ग्रुप की रिपोर्टों के साथ-साथ 2018 और 2019 के प्रकाशित तीन आईपीसीसी विशेष रिपोर्टों पर आधारित है।

आईपीसीसी रिपोर्ट के प्रमुख निष्कर्ष | Key Findings of the IPCC Report


वर्तमान स्थिति | Current Situation

• 100 से अधिक देशों ने पहले ही 2050 तक शुद्ध-शून्य उत्सर्जन प्राप्त करने के अपने इरादे की घोषणा कर दी है।
इनमें संयुक्त राज्य अमेरिका, चीन और यूरोपीय संघ जैसे प्रमुख उत्सर्जक हैं।
• दुनिया के तीसरे सबसे बड़े उत्सर्जक भारत ने इसका विरोध करते हुए कहा है कि यह पहले से ही आवश्यकता से कहीं अधिक कर रहा है और यह सापेक्ष रूप से अन्य देशों से बेहतर प्रदर्शन कर रहा है।
कोई भी नया बोझ लाखों को गरीबी से बाहर निकालने के देश के चल रहे प्रयासों को खतरे में डाल देगा।

कार्बन डाइऑक्साइड (CO2) सांद्रता | Carbon dioxide (CO2) Concentrations


वे कम से कम दो मिलियन वर्षों में अपने उच्चतम बिंदु पर हैं।
• 1800 के दशक के अंत से मनुष्य ने 2,400 बिलियन टन CO2 जारी किया है।
• इसका अधिकांश भाग मानव व्यवहार, विशेष रूप से जीवाश्म ईंधन के उपयोग के लिए जिम्मेदार ठहराया जा सकता है।
• मानव गतिविधि ने पिछले 2,000 वर्षों में ग्रह को एक अद्वितीय दर से गर्म किया है।
वैश्विक कार्बन बजट पहले ही 86% कम हो चुका है।

वर्षा और सूखा Rain and Drought 


तापमान में हर 0.5 डिग्री सेल्सियस की वृद्धि से गर्म चरम सीमा, अत्यधिक वर्षा और सूखा बढ़ जाता है।
अतिरिक्त गर्मी पृथ्वी के कार्बन सिंक की प्रभावशीलता को भी कम कर देगी, जिसमें पौधे, मिट्टी और महासागर शामिल हैं।

अत्यधिक गर्मी | Heat Extremes


गर्मी की चरम सीमा बढ़ गई है जबकि ठंडी चरम सीमा कम हो गई है, और ये पैटर्न भविष्य के दशकों में पूरे एशिया में जारी रहने की उम्मीद है।

समुद्र तल में वृद्धि | Sea Level Rise


• 1901-1971 के दौरान समुद्र के स्तर में वृद्धि की दर चौगुनी हो गई है।
आर्कटिक सागर की बर्फ 1,000 वर्षों में सबसे पतली है।
• 21 वीं सदी के दौरान तटीय क्षेत्रों को समुद्र के स्तर में लगातार वृद्धि का सामना करना पड़ेगा, जिससे तटीय कटाव और निचले इलाकों में अधिक बार और गंभीर बाढ़ आएगी।

औसत सतह का तापमान Mean Surface Temperature

उत्सर्जन में भरी कमी के बिना, प्रथ्वी की सतह का औसत तापमान अगले 20 वर्ष (2047 तक) में पूर्व - औद्योगिक स्तरों  पर 1.5 डिग्री सेल्सियस और सदी के मध्य तक 2 डिग्री सेल्सियस बढ़ जाएगा।

• हाल का दशक पिछले 1,25,000 वर्षों में सबसे गर्म रहा है।
वैश्विक सतह का तापमान 2011-2020 के दशक में 1850- 1900 की तुलना में 1.09 डिग्री सेल्सियस अधिक था।
• यह पहली बार है जब आईपीसीसी ने कहा है कि सबसे अच्छी स्थिति में भी, 1.5 डिग्री सेल्सियस वार्मिंग अपरिहार्य है।

घटती हिमरेखा और पिघलते ग्लेशियर | Declining snowline and melting glaciers


ग्लोबल वार्मिंग का दुनिया भर में पर्वत श्रृंखलाओं, विशेषकर हिमालय पर महत्वपूर्ण प्रभाव पड़ेगा।
पहाड़ों के ठंड के स्तर में बदलाव का अनुमान है, और अगले कई दशकों के दौरान हिमपात कम हो जाएगा।
हिमरेखाओं का पीछे हटना और ग्लेशियरों का पिघलना चिंता का कारण है क्योंकि वे भविष्य में हिमालयी देशों में जल चक्र में परिवर्तन, वर्षा के पैटर्न, अधिक बाढ़ और पानी की कमी को बढ़ा सकते हैं।
• पिछले 2,000 वर्षों में पहाड़ों में तापमान में वृद्धि और ग्लेशियर का पिघलना अद्वितीय है।
मानवजनित कारणों और मानव प्रभाव के कारण ग्लेशियर में गिरावट तेजी से बढ़ रही है।

मानसून | Monsoon

मॉनसून वर्षा में भी बदलाव की संभावना है, वार्षिक और गर्मी दोनों मानसूनी वर्षा के बढ़ने की उम्मीद है।
• एरोसोल में वृद्धि के कारण हाल के दशकों में दक्षिण पश्चि मानसून कम हुआ है, लेकिन अगर यह घटता है, तो हम मानसून की तेज बारिश देखेंगे।

समुद्र का तापमान

• अरब सागर और बंगाल की खाड़ी सहित हिंद महासागर विश्व औसत से अधिक तेजी से गर्म हुआ है।
• जब विश्व का तापमान 1.5 डिग्री सेल्सियस से 2 डिग्री सेल्सियस तक बढ़ जाता है, तो हिंद महासागर के ऊपर समुद्र की सतह का तापमान 1 से 2 डिग्री सेल्सियस तक बढ़ने की उम्मीद है।
हिंद महासागर में समुद्री तापमान अन्य स्थानों की तुलना में तेजी से बढ़ रहा है, जिसका प्रभाव अन्य क्षेत्रों पर पड़ सकता है।

नेट जीरो उत्सर्जन | Net Zero Emissions


• इसका मतलब है कि सभी मानव निर्मित ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन को कम किया जाना चाहिए और वातावरण से हटा दिया जाना चाहिए, प्राकृतिक और मानव निर्मित सिंक के माध्यम से हटाने के बाद पृथ्वी का शुद्ध जलवायु संतुलन शून्य हो जाना चाहिए।
• मानवता कार्बन न्यूट्रल होगी, और वैश्विक तापमान स्थिर होगा।

पहली आकलन रिपोर्ट (1990) | First Assessment Report (1990)


पहली आकलन रिपोर्ट (1990) में कहा गया है कि मानवीय गतिविधियों के परिणामस्वरूप होने वाले उत्सर्जन से ग्रीनहाउस गैसों की वायुमंडलीय सांद्रता में काफी वृद्धि हो रही है।
पिछले 100 वर्षों में वैश्विक तापमान में 0.3 से 0.6 डिग्री सेल्सियस की वृद्धि हुई है।
• सामान्य रूप से व्यवसायिक परिदृश्य में 2025 तक पूर्व- औद्योगिक स्तरों की तुलना में तापमान में 2 डिग्री सेल्सियस और 2100 तक 4 डिग्री सेल्सियस की वृद्धि होने की संभावना थी।
• समुद्र का स्तर 2100 तक 65 सेमी बढ़ने की संभावना थी।
ने • इस अध्ययन ने जलवायु परिवर्तन वार्ता पर 1992 के संयुक्त राष्ट्र फ्रेमवर्क कन्वेंशन की नींव के रूप में कार्य किया।
• इस रिपोर्ट ने 1992 में संयुक्त राष्ट्र फ्रेमवर्क कन्वेंशन ऑन क्लाइमेट चेंज (UNFCCC) की नींव के रूप में कार्य किया, जिसे रियो शिखर सम्मेलन के रूप में जाना जाता है।

दूसरी आकलन रिपोर्ट (1995) | Second Assessment Report (1995)


नए शोध के आलोक में, वैश्विक तापमान में पूर्व औद्योगिक स्तरों की तुलना में 2100 तक 3 डिग्री सेल्सियस की अनुमानित वृद्धि और समुद्र संशोधित किया गया है। के स्तर में 50 सेमी की वृद्धि को
• 1800 के दशक के उत्तरार्ध से वैश्विक तापमान में 0.3 से 0.6 डिग्री सेल्सियस की वृद्धि हुई, "मूल रूप से पूरी तरह से प्राकृतिक होने की संभावना नहीं है। "
• इस पत्र ने क्योटो प्रोटोकॉल के वैज्ञानिक आधार के रूप में कार्य किया, जिस पर 1997 में हस्ताक्षर किए गए थे।

तीसरी आकलन रिपोर्ट (2001) | Third Assessment Report (2001)


तीसरी आकलन रिपोर्ट (2001) ने 1990 की तुलना में 2100 तक वैश्विक तापमान में अनुमानित वृद्धि को 1.4 से 5.8 डिग्री सेल्सियस तक संशोधित किया।
• पिछले 10,000 वर्षों में वार्मिंग की अनुमानित दर अभूतपूर्व थी।
रिपोर्ट ने औसतन वर्षा में वृद्धि की भविष्यवाणी की और कहा कि 2100 तक समुद्र का स्तर 1990 के स्तर से 80 सेमी तक बढ़ने की संभावना है।
• चरम मौसम की घटनाएं अधिक लगातार, तीव्र और लंबे समय तक चलने वाली हो जाएंगी।
रिपोर्ट ने ग्लोबल वार्मिंग को दिखाने के लिए नए और मजबूत साक्ष्य पेश किए जो ज्यादातर मानवीय गतिविधियों के कारण थे।

चौथी आकलन रिपोर्ट (2007) | Fourth Appraisal Report (2007)


• 1970 और 2004 के बीच, ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन में 70% की वृद्धि हुई।
• वातावरण में CO2 का स्तर 2005 में 650,000 वर्षों में अपने उच्चतम स्तर पर पहुंच गया।
सबसे खराब स्थिति में, वैश्विक तापमान 2100 तक पूर्व- औद्योगिक स्तरों से 4.5 डिग्री सेल्सियस तक चढ़ सकता है। समुद्र का स्तर 1990 की तुलना में 60 सेंटीमीटर अधिक हो सकता है।
आईपीसीसी रिपोर्ट को 2007 में नोबेल शांति पुरस्कार मिला और 2009 कोपेनहेगन जलवायु सम्मेलन के लिए वैज्ञानिक इनपुट के रूप में कार्य किया।

पांचवीं आकलन रिपोर्ट (2014) | Fifth Assessment Report (2014)


पांचवीं आकलन रिपोर्ट (2014) में कहा गया है कि 1950 बाद से तापमान में आधे से अधिक वृद्धि मानवीय गतिविधियों के कारण हुई है और पिछले 800,000 वर्षों में कार्बन डाइऑक्साइड, मीथेन और नाइट्रस ऑक्साइड की वायुमंडलीय सांद्रता "अभूतपूर्व" थी।
पूर्व-औद्योगिक स्तरों की तुलना में 2100 तक वैश्विक तापमान 4.8 डिग्री सेल्सियस बढ़ सकता है।
गर्मी की लहरें जो अधिक बार होती हैं और लंबे समय तक चलती हैं, "लगभग निश्चित" होती हैं।
एक "महत्वपूर्ण संख्या में प्रजातियां" विलुप्त होने के कगार पर हैं। इसका खामियाजा खाद्य सुरक्षा को भुगतना पड़ेगा।
इस पत्र ने 2015 के पेरिस समझौते की चर्चा के लिए वैज्ञानिक आधार के रूप में कार्य किया।

छठी आकलन रिपोर्ट (2021) | Sixth Evaluation Report (2021)


जलवायु परिवर्तन पर संयुक्त राष्ट्र अंतर सरकारी पैनल (आईपीसीसी) की छठी आकलन रिपोर्ट (एआर 6) जलवायु परिवर्तन से संबंधित वैज्ञानिक, तकनीकी और सामाजिक-आर्थिक जानकारी का आकलन करने के उद्देश्य से रिपोर्टों की एक श्रृंखला में छठी है।
• यह रिपोर्ट अतीत, वर्तमान और भविष्य की जलवायु को देखते हुए जलवायु परिवर्तन के भौतिक विज्ञान का मूल्यांकन करती है।
यह बताता है कि मानव जनित उत्सर्जन हमारे ग्रह को कैसे बदल रहा है और हमारे सामूहिक भविष्य के लिए इसका क्या अर्थ है।
• आकलन रिपोर्ट, जिनमें से पहली 1990 में सामने आई थी, पृथ्वी की जलवायु की स्थिति का सबसे व्यापक मूल्यांकन हैं।

आईपीसीसी रिपोर्ट का महत्व | Significance of IPCC Reports


• IPCC के निष्कर्षों का जलवायु सम्मेलन के पार्टियों के पहले सम्मेलन (COP) पर भी प्रभाव पड़ा, जिसे 1995 में बर्लिन, जर्मनी में आयोजित किया गया था।
प्रतिभागियों ने तथाकथित बर्लिन जनादेश का मसौदा तैयार किया, जिसने एक बातचीत प्रक्रिया के ढांचे को रेखांकित किया, जिसके परिणामस्वरूप औद्योगिक देशों द्वारा वर्ष 2000 से परे अपने उष्मा कम करने वाले उत्सर्जन में कटौती करने के लिए लागू करने योग्य वादे होंगे।
क्योंकि IPCC 195 सदस्य देशों के साथ संयुक्त राष्ट्र से संबद्ध संगठन है और इसके निपटान में विशेषज्ञों और शोधकर्ताओं का एक विविध पूल है, यह जलवायु परिवर्तन पर अनुसंधान और साक्ष्य प्रकाशित करने के लिए सबसे भरोसेमंद संस्थानों में से एक है।
• सामान्य तौर पर, प्रक्रिया को पूरा होने में दो से पांच साल लगते हैं।

पूछ जाने वाले प्रश्न 

प्रश्न- आईपीसीसी (IPCC) का पूरा नाम ?
उत्तर - Intergovernmental Panel on Climate Change
प्रश्न - WMO का पूरा नाम ?
उत्तर - World Meteorological Organization
प्रश्न - WMO की स्थापना कब हुई ?
उत्तर - WMO की स्थापना 1988 में हुई ।
प्रश्न - आईपीसीसी की चौथी रिपोर्ट 2007 के अनुसार ग्रीन हाउस गैस में कितनी वृद्धि हुई ?
उत्तर - 1970 और 2004 के बीच, ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन में 70% की वृद्धि हुई।

मानद विश्वविद्यालय (Deemed University

मानद विश्वविद्यालय (Deemed University

मानद विश्वविद्यालय (Deemed University, डीम्ड यूनिवर्सिटी) या सम विश्वविद्यालय भारत में उच्च शिक्षा के संस्थानों को उच्च शिक्षा विभाग द्वारा दी गई एक मान्यता है। यह भारत में एक प्रकार का विश्वविद्यालय है। भारत में उन उच्‍चतर शिक्षा संस्थाओं को मानद विश्वविद्यालय कहते हैं जिन्हें विश्वविद्यालय अनुदान आयोग की सलाह पर भारत सरकार के उच्च शिक्षा विभाग द्वारा इस प्रकार की (अर्थात 'मानित विश्वविद्यालय' की) मान्यता दी जाती है। जिन संस्‍थानों को 'मानित विश्वविद्यालय' घोषित किया जाता है, वे विश्वविद्यालय के शैक्षिक स्‍तरों और विशेषाधिकारों का उपयोग करते हैं। मानित विश्वविद्यालय शिक्षा के किसी विशिष्‍ट क्षेत्र में ऊंचे स्‍तर पर कार्य करने वाले संस्थान हैं।

मानद विश्वविद्यालय (Deemed University) के उद्देश्य - 

डीम्ड विश्वविद्यालय की स्थिति प्राप्त संस्थान न केवल अपने पाठ्यक्रम को निर्धारित करने की पूर्ण स्वायत्तता प्राप्त करते हैं बल्कि प्रवेश नीति, विभिन्न पाठ्यक्रमों के शुल्क तथा छात्रों के लिए निर्देश भी बनाने के लिये स्वतन्त्र होते हैं।
डीम्ड विश्वविद्यालय के अभिभावक विश्वविद्यालय इनके प्रशासन पर नियंत्रण नहीं कर सकते, तथापि इनकी डिग्रियाँ अभिभावक विश्वविद्यालय द्वारा ही प्रदान की जाती हैं। हालांकि, कई समविश्वविद्यालयों को उनके अपने नाम के तहत डिग्री प्रदान करने की अनुमति है।

मानद विश्वविद्यालय (Deemed University का कार्य क्षेत्र - 

इन 'मानित विश्वविद्यालय' संस्‍थानों ने भारत में उच्‍चतर शिक्षा के आधार को विस्‍तार प्रदान किया है और ये विभिन्‍न विषयों जैसे चिकित्‍सा शिक्षा, शारीरिक शिक्षा, मात्स्यिकी शिक्षा, भाषाओं, सामाजिक विज्ञानों, जनसंख्‍या विज्ञानों, पशुपालन शोध, वन शोध, आयुध प्रौद्योगिकी, तटीय शिक्षा, योग, संगीत और सूचना प्रौद्योगिकी आदि में शिक्षा और शोध सुविधाएं प्रदान कर रहे हैं।



UGC NET PEPAR 2 EDUCATION

UGC NET PEPAR 2 EDUCATION 

SYLLABUS

Unit 1: Educational Studies

a) Contribution of Indian Schools of philosophy (Sankhya Yoga, Vedanta,
Buddhism, Jainism) with special reference to Vidya, Dayanand
Darshan; and Islamic traditions towards educational aims and methods
of acquiring valid knowledge
b) Contribution of Western schools of thoughts (Idealism, Realism,
Naturalism, Pragmatism, Marxism, Existentialism) and their contribution
to Education with special reference to information, knowledge and
wisdom
c) Approaches to Sociology of Education (symbolic Interaction, Structural
Functionalism and Conflict Theory). Concept and types of social
Institutions and their functions (family, school and society), Concept of
Social Movements, Theories of Social Movements (Relative
Deprivation, Resource Mobilization, Political Process Theory and New
Social Movement Theory)
d) Socialization and education- education and culture; Contribution of
thinkers (Swami Vivekananda, Rabindranath Tagore, Mahatma
Gandhi, Aurobindo, J.Krishnamurthy, Paulo Freire, Wollstonecraft, Nel
Noddings and Savitribai Phule) to the development of educational
thought for social change, National Values as enshrined in the Indian
Constitution - Socialism, Secularism, justice, liberty, democracy,
equality, freedom with special reference to education

Unit 2: History, Politics and Economics of Education

a) Committees and Commissions’ Contribution to Teacher Education
Secondary Education Commission (1953), Kothari Education
Commission (1964-66), National Policy of Education (1986,1992),
National Commission on Teachers (1999), National Curriculum
Framework 2005, National Knowledge Commission (2007), Yashpal
Committee Report (2009), National Curriculum Framework for Teacher
Education (2009), Justice Verma Committee Report (2012)
b) Relationship between Policies and Education, Linkage between
Educational Policy and National Development, Determinants of
Educational Policy and Process of Policy formulation: Analysis of the
existing situation, generation of policy options, evaluation of policy
options, making the policy decision, planning of policy implementation,
policy impact assessment and subsequent policy cycles.
c) Concept of Economics of Education: Cost Benefit Analysis Vs Cost
Effective Analysis in Education, Economic returns to Higher Education
Signaling Theory Vs Human Capital Theory, Concept of Educational
Finance; Educational finance at Micro and Macro Levels, Concept of
Budgeting
d) Relationship Between Politics and Education, Perspectives of Politics
of Education Liberal, Conservative and Critical, Approaches to
understanding Politics (Behaviouralism, Theory of Systems Analysis
and Theory of Rational Choice), Education for Political Development
and Political Socialization

Unit 3: Learner and Learning Process

a) Growth and Development: Concept and principles ,Cognitive
Processes and stages of Cognitive Development , Personality:
Definitions and theories (Freud, Carl Rogers, Gordon Allport, Max
Wertheimer, Kurt Koffka) , Mental health and Mental hygiene
b) Approaches to Intelligence from Unitary to Multiple: Concepts of Social
intelligence, multiple intelligence, emotional intelligence Theories of
Intelligence by Sternberg, Gardner, Assessment of Intelligence,
Concepts of Problem Solving, Critical thinking, Metacognition and
Creativity
c) Principles and Theories of learning: Behaviouristic, Cognitive and
Social theories of learning, Factors affecting social learning, social
competence, Concept of social cognition, understanding social
relationship and socialization goals
d) Guidance and Counselling: Nature, Principles and Need, Types of
guidance (educational, vocational, personal, health and social &
Directive, Non-directive and Eclectic), Approaches to counselling –
Cognitive-Behavioural (Albert Ellis – REBT) & Humanistic, Person-
centred Counselling (Carl Rogers) - Theories of Counselling
(Behaviouristic, Rational, Emotive and Reality)

Unit 4: Teacher Education

a) Meaning, Nature and Scope of Teacher Education; Types of Teacher
Education Programs, The Structure of Teacher Education Curriculum
and its Vision in Curriculum Documents of NCERT and NCTE at
Elementary, Secondary and Higher Secondary Levels , Organization of
Components of Pre-service Teacher Education Transactional
Approaches (for foundation courses) Expository, Collaborative and
Experiential learning
b) Understanding Knowledge base of Teacher Education from the view
point of Schulman, Deng and Luke & Habermas, Meaning of Reflective
Teaching and Strategies for Promoting Reflective Teaching, Models of
Teacher Education - Behaviouristic, Competency-based and Inquiry
Oriented Teacher Education Models
c) Concept, Need, Purpose and Scope of In-service Teacher Education,
Organization and Modes of In-service Teacher Education, Agencies
and Institutions of In-service Teacher Education at District, State and
National Levels (SSA, RMSA, SCERT, NCERT, NCTE and UGC),
Preliminary Consideration in Planning in-service teacher education
programme (Purpose, Duration, Resources and Budget)
d) Concept of Profession and Professionalism, Teaching as a Profession,
Professional Ethics of Teachers, Personal and Contextual factors
affecting Teacher Development, ICT Integration, Quality Enhancement
for Professionalization of Teacher Education, Innovation in Teacher
Education

Unit 5: Curriculum Studies

a) Concept and Principles of Curriculum, Strategies of Curriculum
Development, Stages in the Process of Curriculum development,
Foundations of Curriculum Planning - Philosophical Bases (National,
democratic), Sociological basis (socio cultural reconstruction),
Psychological Bases (learner’s needs and interests),Bench marking
and Role of National level Statutory Bodies - UGC, NCTE and
University in Curriculum Development
b) Models of Curriculum Design: Traditional and Contemporary Models
(Academic / Discipline Based Model, Competency Based Model, Social
Functions / Activities Model [social reconstruction], Individual Needs &
Interests Model, Outcome Based Integrative Model , Intervention
Model, C I P P Model (Context, Input, Process, Product Model)
c) Instructional System, Instructional Media, Instructional Techniques and
Material in enhancing curriculum Transaction, Approaches to
Evaluation of Curriculum : Approaches to Curriculum and Instruction
(Academic and Competency Based Approaches), Models of Curriculum
Evaluation: Tyler’s Model, Stakes’ Model, Scriven’s Model,
Kirkpatrick’s Model
d) Meaning and types of Curriculum change, Factors affecting curriculum
change, Approaches to curriculum change, Role of students, teachers
and educational administrators in curriculum change and improvement,
Scope of curriculum research and Types of Research in Curriculum
Studies

Unit 6: Research in Education

a) Meaning and Scope of Educational Research, Meaning and steps of
Scientific Method, Characteristics of Scientific Method (Replicability,
Precision, Falsifiability and Parsimony), Types of Scientific Method
(Exploratory, Explanatory and Descriptive), Aims of research as a
scientific activity: Problem-solving, Theory Building and Prediction,
Types of research (Fundamental, Applied and Action), Approaches to
educational research (Quantitative and Qualitative), Designs in
educational research (Descriptive, Experimental and Historical)
b) Variables: Meaning of Concepts, Constructs and Variables, Types of
Variables (Independent, Dependent, Extraneous, Intervening and
Moderator), Hypotheses - Concept, Sources, Types (Research, Directional, Non-directional, Null), Formulating Hypothesis,
Characteristics of a good hypothesis, Steps of Writing a Research
Proposal, Concept of Universe and Sample, Characteristics of a good
Sample, Techniques of Sampling (Probability and Non-probability
Sampling), Tools of Research - Validity, Reliability and Standardisation
of a Tool, Types of Tools (Rating scale, Attitude scale, Questionnaire,
Aptitude test and Achievement Test, Inventory), Techniques of
Research (Observation, Interview and Projective Techniques)
c) Types of Measurement Scale (Nominal, Ordinal, Interval and Ratio),
Quantitative Data Analysis - Descriptive data analysis (Measures of
central tendency, variability, fiduciary limits and graphical presentation
of data), Testing of Hypothesis (Type I and Type II Errors), Levels of
Significance, Power of a statistical test and effect size, Parametric
Techniques, Non- Parametric Techniques , Conditions to be satisfied
for using parametric techniques, Inferential data analysis, Use and
Interpretation of statistical techniques: Correlation, t-test, z-test,
ANOVA, chi-square (Equal Probability and Normal Probability
Hypothesis). Qualitative Data Analysis - Data Reduction and
Classification, Analytical Induction and Constant Comparison, Concept
of Triangulation
d) Qualitative Research Designs: Grounded Theory Designs (Types,
characteristics, designs, Steps in conducting a GT research, Strengths
and Weakness of GT) - Narrative Research Designs (Meaning and key
Characteristics, Steps in conducting NR design), Case Study (Meaning,
Characteristics, Components of a CS design, Types of CS design,
Steps of conducting a CS research, Strengths and weaknesses),
Ethnography (Meaning, Characteristics, Underlying assumptions, Steps
of conducting ethnographic research, Writing ethnographic account,
Strengths and weaknesses), Mixed Method Designs: Characteristics,
Types of MM designs (Triangulation, explanatory and exploratory
designs), Steps in conducting a MM designs, Strengths and weakness
of MM research.

Unit 7: Pedagogy, Andragogy and Assessment

a) Pedagogy, Pedagogical Analysis - Concept and Stages, Critical
Pedagogy- Meaning, Need and its implications in Teacher Education,
Organizing Teaching: Memory Level (Herbartian Model),
Understanding Level (Morrison teaching Model), Reflective Level
(Bigge and Hunt teaching Model), Concept of Andragogy in Education: Meaning, Principles, Competencies of Self-directed Learning, Theory of
Andragogy (Malcolm Knowles), The Dynamic Model of Learner
Autonomy
b) Assessment – Meaning, nature, perspectives (assessment for
Learning, assessment of learning and Assessment of Learning) - Types
of Assessment (Placement, formative, diagnostic, summative)
Relations between objectives and outcomes , Assessment of Cognitive
(Anderson and Krathwohl), Affective (Krathwohl) and psychomotor
domains (R.H. Dave) of learning
c) Assessment in Pedagogy of Education: Feedback Devices: Meaning,
Types, Criteria, Guidance as a Feedback Devices: Assessment of
Portfolios, Reflective Journal, Field Engagement using Rubrics,
Competency Based Evaluation, Assessment of Teacher Prepared ICT
Resources
d) Assessment in Andragogy of Education - Interaction Analysis: Flanders’
Interaction analysis, Galloway’s system of interaction analysis
(Recording of Classroom Events, Construction and Interpretation of
Interaction Matrix), Criteria for teacher evaluation (Product, Process
and Presage criteria, Rubrics for Self and Peer evaluation (Meaning,
steps of construction).

Unit 8: Technology in/ for Education

a) Concept of Educational Technology (ET) as a Discipline: (Information
Technology, Communication Technology & Information and
Communication Technology (ICT) and Instructional Technology,
Applications of Educational Technology in formal, non formal (Open
and Distance Learning), informal and inclusive education systems,
Overview of Behaviourist, Cognitive and Constructivist Theories and
their implications to Instructional Design (Skinner, Piaget, Ausubel,
Bruner, Vygotsky), Relationship between Learning Theories and
Instructional Strategies (for large and small groups, formal and non
formal groups )
b) Systems Approach to Instructional Design, Models of Development of
Instructional Design (ADDIE, ASSURE, Dick and Carey Model
Mason’s), Gagne’s Nine Events of Instruction and Five E’s of
Constructivism, Nine Elements of Constructivist Instructional Design,
Application of Computers in Education: CAI, CAL, CBT, CML, Concept,
Process of preparing ODLM, Concept of e learning, Approaches to e learning (Offline, Online, Synchronous, Asynchronous, Blended
learning, mobile learning)
c) Emerging Trends in e learning: Social learning (concept , use of web
2.0 tools for learning, social networking sites, blogs, chats, video
conferencing, discussion forum), Open Education Resources (Creative
Common, Massive Open Online Courses; Concept and application), E
Inclusion - Concept of E Inclusion, Application of Assistive technology
in E learning , Quality of E Learning – Measuring quality of system:
Information, System, Service, User Satisfaction and Net Benefits (D&M
IS Success Model, 2003), Ethical Issues for E Learner and E Teacher -
Teaching, Learning and Research
d) Use of ICT in Evaluation, Administration and Research: E portfolios,
ICT for Research - Online Repositories and Online Libraries, Online
and Offline assessment tools (Online survey tools or test generators) –
Concept and Development.
Unit 9: Educational Management, Administration and Leadership
a) Educational Management and Administration – Meaning, Principles,
Functions and importance, Institutional building, POSDCORB, CPM,
PERT, Management as a system, SWOT analysis, Taylorism,
Administration as a process, Administration as a bureaucracy, Human
relations approach to Administration, Organisational compliance,
Organinsational development, Organisational climate
b) Leadership in Educational Administration: Meaning and Nature,
Approaches to leadership: Trait, Transformational, Transactional, Value
based, Cultural, Psychodynamic and Charismatic, Models of
Leadership (Blake and Mouton’s Managerial Grid, Fiedler’s
Contingency Model, Tri-dimensional Model, Hersey and Blanchard’s
Model, Leader-Member Exchange Theory)
c) Concept of Quality and Quality in Education: Indian and International
perspective, Evolution of Quality: Inspection, Quality Control, Quality
Assurance, Total Quality Management (TQM), Six sigma, Quality
Gurus: Walter Shewart, Edward Deming, C.K Pralhad
d) Change Management: Meaning, Need for Planned change, Three-
Step-Model of Change (Unfreezing, Moving, Refreezing), The
Japanese Models of Change: Just-in-Time, Poka yoke, Cost of Quality:
Appraisal Costs, Failure costs and Preventable costs, Cost Benefit Analysis, Cost Effective Analysis, Indian and International Quality
Assurance Agencies: Objectives, Functions, Roles and Initiatives
(National Assessment Accreditation Council [NAAC], Performance
Indicators, Quality Council of India [QCI] , International Network for
Quality Assurance Agencies in Higher Education [INQAAHE].

Unit 10: Inclusive Education

a) Inclusive Education: Concept, Principles, Scope and Target Groups
(Diverse learners; Including Marginalized group and Learners with
Disabilities), Evolution of the Philosophy of Inclusive Education:
Special, Integrated, Inclusive Education, Legal Provisions: Policies and
Legislations (National Policy of Education (1986), Programme of Action
of Action (1992), Persons with Disabilities Act (1995), National Policy of
Disabilities (2006), National Curriculum Framework (2005), Concession
and Facilities to Diverse Learners (Academic and Financial),
Rehabilitation Council of India Act (1992), Inclusive Education under
Sarva Shiksha Abhiyan (SSA), Features of UNCRPD (United Nations
Convention on the Rights of Persons with Disabilities) and its
Implication
b) Concept of Impairment, Disability and Handicap, Classification of
Disabilities based on ICF Model, Readiness of School and Models of
Inclusion, Prevalence, Types, Characteristics and Educational Needs of
Diverse learners’ Intellectual, Physical and Multiple Disabilities, Causes
and prevention of disabilities, Identification of Diverse Learners for
Inclusion, Educational Evaluation Methods, Techniques and Tools
c) Planning and Management of Inclusive Classrooms: Infrastructure,
Human Resource and Instructional Practices, Curriculum and
Curricular Adaptations for Diverse Learners, Assistive and Adaptive
Technology for Diverse learners: Product (Aids and Appliances) and
Process (Individualized Education Plan, Remedial Teaching), Parent-
Professional Partnership: Role of Parents, Peers, Professionals,
Teachers, School
d) Barriers and Facilitators in Inclusive Education: Attitude, Social and
Educational, Current Status and Ethical Issues of inclusive education in
India, Research Trends of Inclusive Education in India .

स्वामी विवेकानंद के शैक्षिक एवं सामाजिक चिंतन की वर्तमान परिपेक्ष्य में सार्थकता

स्वामी विवेकानंद के शैक्षिक एवं सामाजिक चिंतन की वर्तमान परिपेक्ष्य में सार्थकता 

डॉ० गीता दहिया प्राचार्य, नेशनल टी. टी. कॉलेज फॉर गर्ल्स, अलवर, राजस्थान, भारत ।

1. प्रस्तावना

भारत को आज एक युवा राष्ट्र के रूप में पहचाना जा रहा है ऐसे में चिर युवा व्यक्तित्व स्वामी विवेकानन्द ही उसकी प्रेरणा का सर्वोत्तम स्त्रोत हो सकता है। स्वामी विवेकानन्द ने हिन्दू संस्कृति को उस समय विश्व मान्यता दिलवाई जब भारतीयों को आत्म विश्वास रसातल में गया हुआ था। स्वामी विवेकानन्द के आध्यात्मिक प्रवाह के साथ-साथ राष्ट्रीयता के शंखनाद ने भारत के स्वतन्त्रता आन्दोलन में नई जान फूंक दी थी। देश के पुनः निर्माण का श्री गणेश उन्होंने किया, वह आज भी जारी है। स्वामी विवेकानन्द की जयन्ती पर आवश्यकता यह मनन करने की है कि हम उनके दिखाए मार्ग पर कितना आगे बढ़ पाये हैं ।


    स्वामी विवेकानन्द जी भारतीय और विश्व इविहास के उन महान् व्यक्तियों में से है जो राष्ट्रीय जीवन को एक नई दिशा प्रदान करने में एक अमृत धारा की भांति है। स्वामी जी के व्यक्तित्व और विचारो में भारतीय संस्कृति परम्परा के सर्वश्रेष्ठ तत्व निहित थे । उनका जीवन भारत के लिए वरदान था। स्वामी जी के व्यक्तित्व और विचारो में भारत के लिए वरदान था । स्वामी जी का सम्पूर्ण जीवन माँ भारती और भारतवासियों की सेवा हेतु समर्पित था उनका व्यक्तित्व विशाल समुद्र की भाती था। वे आधुनिक भारत के एक आर्दश प्रतिनिधि होने के अतिरिक्त वैदिक धर्म एवं संस्कृति के समस्त स्वरूपों के उज्जवल प्रतीक थे। प्रखर बुद्धि के स्वामी और तर्क विचारो से सुसज्जित जलते दीपक की तरह प्रकाशमान थे। उनके अंतःकरण में अलोकित प्रसफुटित ज्वाला प्रज्जवलित होती है। "उनके विचार शिक्षा और दर्शन इतने प्रभावी है कि स्वामी जी के द्वारा दिये गये सैकड़ो व्यक्तव्यों में से कोई एक व्यक्तव्य महान् क्रान्ति करने के लिए, व्यक्ति के जीवन में आमूल परिवर्तन करने में समर्थ हैं।"

    स्वामी विवेकानन्द क्रान्ति की नई छवि को गढ़ने वाले विचारक थे। वे समाजोद्धार को आत्मोद्धार से जोडकर देखते थे। यही उनकी क्रान्ति को एक नया आयाम देता है, "जीवन में मेरी एक मात्र अभिलाषा यही है कि ऐसे चक्र का प्रवर्तन कर दूँ, जो उच्च एवं श्रेष्ठ विचारो को सबके द्वारो तक पहुँचा दें, और फिर स्त्री-पुरूष अपने भाग्य का निर्णय स्वयं कर ले। हमारे पूर्वजों तथा अन्य देशों ने भी जीवन के महत्त्वपूर्ण प्रश्नों पर क्या विचार किया हैं, यह सर्वसाधारण को जानने दो। विशेष कर उन्हें यह देखने दो कि और लोग इस समय क्या कर रहे है और तब उन्हे अपना निर्णय करने दे | 

    उठो, साहसी बनो, वीर्यवान होओ। सब उत्तरदायित्व अपने कन्धो पर लो। यह याद रखो कि तुम स्वयं अपने भाग्य के निर्माता हो । तुम जो कुछ बल या सहायता चाहो, सब तुम्हारे ही भीतर विद्यमान है। अतएव इस ज्ञानरूप शक्ति के सहारे तुम बल प्राप्त करो और अपने हाथों अपना भविष्य गढ़ डालो।

     2. स्वामी विवेकानन्द जी का जीवन परिचय

    स्वामी विवेकानन्द जी का जन्म 12 जनवरी सन् 1863 में एक बंगाली कायस्थ परिवार में हुआ था। इनके पिता श्री विश्वनाथ दत्त कलकत्ता के उच्च न्यायालय में एटर्नी (वकील) थे। इनका वास्तविक नाम नरेन्द्रनाथ दत्त था । उनके घर का वातावरण धार्मिक था, इसलिए स्वामी जी को भी धर्म-कर्म, पूजा-पाठ में विशेष रूचि थी। उनकी माँ भुवनेश्वर देवी भी बड़ी बुद्धिमती, गुणवती, धर्मपरायण एवं परोपकारी थी। वह उन्हें रामायण, महाभारत तथा पुराण सुनाया करती थी इन धार्मिक चर्चाओं का उनके ऊपर अत्यधिक प्रभाव पड़ा और वे बड़े महात्मा बन गये उनकी महानता, विद्वता एवं धर्मनिष्ठा किसी से छिपी नहीं है। सन् 1893 ई. में विश्व धर्म सम्मेलन में भाग लेने वे अमेरिका गये और वहाँ जाने से पूर्व उन्होंने अपना नाम विवेकानन्द रखा। उन्होंने शिक्षा को अपने देश की गरीबी, दरिद्रता एवं दुख का कारण बताया और भारत के नागरिको की शिक्षा कैसी हो इस पर विचार व्यक्त किया। विदेशो में घूम-घूम कर हिन्दू धर्म का प्रचार कर देश एवं स्वयं का नाम कमाया। 4 जुलाई सन् 1902 में यह महात्मा संसार में हिन्दु धर्म को फिर से प्रतिष्ठित करके अल्पायु में ही परलोक सिधार गये।

    3. स्वामी विवेकानन्द जी के अनुसार 

    कोई व्यक्ति किसी दूसरे व्यक्ति को नहीं सिखाता, प्रत्यके व्यक्ति अपने आप सीखता हैं। बाहरी शिक्षक तो केवल सुझाव ही प्रस्तुत करते हैं जिनसे भीतरी, शिक्षक को समझने और सीखने की प्रेरणा मिलती है। स्वामी जी ने उस समय की शिक्षा को निरर्थक बताते हुए कहा- " आप उस व्यक्ति को शिक्षित मानते हैं जिसने कुछ परिक्षाएँ पास कर ली हो तथा अच्छे भाषण दे सकता हो । पर वास्तविकता यह है कि जो शिक्षा जनसाधारण को जीवन संघर्ष के लिए तैयार नहीं कर सकती वो चरित्र-निर्माण नहीं कर सकती, जो समाज सेवा की भावना को पैदा नहीं कर सकती तथा जो शेर जैसा साहस पैदा नहीं कर सकती, ऐसी शिक्षा से क्या लाभ है।" 

    उनके इस कथन से स्पष्ट है कि शिक्षा के प्रति उनका व्यापक दृष्टिकोण हैं अतः स्वामी जी सैद्धान्तिक शिक्षा के पक्ष में नहीं थे, वे व्यावहारिक शिक्षा को व्यक्ति के लिए उपयोगी मानते थे । व्यक्ति की शिक्षा ही उसे भविष्य के लिए तैयार करती है। इसलिए शिक्षा में उन तत्वो का होना अत्यन्त आवश्यक है जो उसके भविष्य के लिए महत्त्वपूर्ण हो। इस संबंध में उन्होंने भारतीयों को समय-समय पर सचेत करते हुए कहा- "तुमको कार्य के प्रत्येक क्षेत्र को व्यवहारिक बनाना पडेगा । सिद्धान्तो के ढेरो ने सम्पूर्ण देश का विनाश कर दिया है। 4 स्वामी जी शिक्षा द्वारा लौकिक एवं पारलौकिक दोनो जीवन के लिए तैयार करना चाहते है। लौकिक दृष्टि से शिक्षा के सम्बन्ध में उन्होंने कहा है कि "हमे ऐसी शिक्षा चाहिए, जिससे चरित्र का गठन हो मन का बल बढे, बुद्धि का विकास हो और व्यक्ति स्वावलम्बी बने । पारलौकिक दृष्टि से उन्होंने कहा है कि "शिक्षा मनुष्य की अन्तर्निहित पूर्णता की अभिव्यक्ति हैं ।"

    4. स्वामी विवेकानन्द का शिक्षा दर्शन

    स्वामी विवेकानन्द जी ऐसे परम्परागत व्यवसायिक तकनीकी शिक्षा शास्त्री न थे जिन्होने शिक्षा का क्रमबद्ध सुनिश्चित विवरण दिया हो। वह मुख्यतः एक दार्शनिक, देशभक्त, समाज सुधारक और दिव्यात्मा थे जिनका लक्ष्य अपने देश और समाज की खोयी हुई जनता को जगाना तथा उसे नव निर्माण के पथ पर अग्रसर करना था । शिक्षा दर्शन के क्षेत्र में स्वामी जी की तुलना विश्व के महानतम शिक्षा शास्त्रियों प्लेटो, रूसो और बटैंड रसेल से की जा सकती है क्योंकि उन्होंने शिक्षा के कुछ सिद्धान्त प्रस्तुत किए है जिनके आधार पर विशाल ज्ञान का भवन निर्माण तकनीकी रूप से कर सकते हैं।

    स्वामी विवेकानन्द की नस नस में भारतीयता तथा आध्यात्मिकता कूट-कूट कर भरी हुई थी। अतः उनके शिक्षा दर्शन का आधार भी भारतीय वेदान्त या उपनिषद् ही रहे उनका मुख्य उद्देश्य था मानव का नव निर्माण क्योंकि व्यक्ति समाज का मूल आधार है। व्यक्ति के सर्वार्गीण उत्थान से समाज का सर्वार्गीण उत्थान होता है और व्यक्ति के पतन से समाज का पतन होता है स्वामी जी ने अपने शिक्षा दर्शन में व्यक्ति और समाज दोनो के समरस संतुलित विकास को ही शिक्षा का प्रमुख लक्ष्य माना, स्वामी जी के अनुसार वेदान्त दर्शन में प्रत्येक बालक में असीम ज्ञान और विकास की सम्भावना है परन्तु उन्हें इन शक्तियों का पता नहीं है। शिक्षा द्वारा उसे इनकी प्राप्ति करवाई जाती है तथा उनके उत्तरोतर विकास में छात्र की सहायता की जाती है स्वामी जी वेदांती थे इसलिए वे मनुष्य को जन्म से पूर्ण मानते थे और इस पूर्णता की अभिव्यक्ति को ही शिक्षा कहते थे स्वामी जी के शब्दों में "मनुष्य की अन्तर्निहित पूर्णता को व्यक्त करना ही शिक्षा है।" स्वामी विवेकानन्द शिक्षा के विषय में कहते है कि सच्ची शिक्षा वह है जिससे मनुष्य की मानसिक शक्तियों का विकास हो वह शब्दों को रटना मात्र नहीं है। वह व्यक्ति की मानसिक शक्तियों का ऐसा विकास है, जिससे वह स्वयंमेव स्वतंत्रतापूर्वक विचार कर सही निर्णय कर सकें।

    इक्कसवीं शब्ताबदी के बदलते परिवेश में जहाँ सूचना और प्रौद्योगिका का युग चल रहा हैं ऐसे में स्वामी जी के चिन्तन को अपनाना आवश्यक हैं। स्वामी जी शिक्षा के वर्तमान रूप को अभावात्मक बताते थे जिनके विद्यार्थियों को अपनी संस्कृति का ज्ञान नहीं उन्हें जीवन के वास्तविक मूल्यों का पाठ नहीं पढ़ाया जा सकता तथा उनमें श्रद्धा का भाव भी नहीं पनपता है। उनके अनुसार भारत के पिछडेपन के लिए वर्तमान शिक्षा पद्धति ही उत्तरदायी है यह शिक्षा न तो उत्तम जीवन जीने की तकनीक प्रदान करती है और न ही बुद्धि का नैसर्गिक विकास करने में सक्षम हैं। स्वामी जी ने आधुनिक शिक्षा पद्धति की आलोचना करते हुए लिखा हैं- "ऐसा प्रशिक्षण जो नकारात्मक पद्धति पर आधारित हो, मृत्यु से भी बुरा हैं ।" स्वामी विवेकानन्द भारतीयों के लिए पाश्चात्य दृष्टिकोण से प्रभावित शिक्षा पद्धति के स्थान पर भारतीय गुरुकुल पद्धति को श्रेष्ठ मानते थे जिसमें विद्यार्थियों तथा शिक्षकों में निकटता के संबंध तथा सम्पर्क रह सके और विद्यार्थियों में श्रद्धा, पवित्रता, ज्ञान, धैर्य, विश्वास, विनम्रता, आदर आदि गुणों का विकास हो सकें स्वामी जी भारतीय शिक्षा पाठ्यक्रम में दर्शनशास्त्र एवं धार्मिक ग्रंथों के अध्ययन को भी आवश्यक मानते थे वे ऐसी शिक्षा के समर्थक थे जो संकीर्ण मानसिकता तथा भेदभाव साम्प्रदायिकता के दोषों से मुक्त हो स्वामी विवेकानन्द के अनुसार शिक्षा का मूल उद्देश्य, जिसमें व्यक्ति का सर्वागीण विकास हो । उत्तम चरित्र, मानसिक शक्ति और बौद्धिक विकास हो, जिससे व्यक्ति पर्याप्त मात्रा में धन अर्जित कर सके और आपात काल के लिए धन संचय कर सके।

    4.1 शिक्षा दर्शन के आधारभुत सिद्धान्त स्वामी विवेकानन्द के शिक्षा दर्शन के आधारभूत सिद्धान्त निम्नलिखित हैं-

    • शिक्षा ऐसी हो जिससे बालक का शारीरिक, मानसिक एवं आत्मिक विकास हो सके। 
    • शिक्षा ऐसी हो जिससे बालक के चरित्र का निर्माण हो, मन का विकास हो, बुद्धि विकसित हो तथा बालक आत्मनिर्भर बने। बालक एवं बालिका को समान शिक्षा देनी चाहिए। धार्मिक शिक्षा, पुस्तकों द्वारा न देकर आचरण एवं संस्कारों द्वारा देनी चाहिए।
    • शिक्षा से बालक के चरित्र का गठन हो, मन का बल बढ़े तथा बुद्धि विकसित हो जिससे वह अपने पैरों पर खड़ा हो जाये । 
    • शिक्षा बालक में आत्मिक निष्ठा तथा श्रद्धा विकसित करें एवं उसमें आत्मत्याग की प्रगति करके पूर्णता की अभिव्यक्ति करे ।
    • पाठ्यक्रम में लौकिक एवं पारलौकिक दोनों प्रकार के विषयों को स्थान देना चाहिए ।
    • शिक्षा, गुरू गृह में प्राप्त की जा सकती है। 
    • शिक्षक एवं छात्र सबंधं अधिक से अधिक निकट का होना चाहिए ।
    • सर्वसाधारण में शिक्षा का प्रचार एवं प्रसार किया जाना चाहिए । देश की प्रगति के लिए तकनीकी शिक्षा की व्यवस्था की जाए। 
    • मानवीय एवं राष्ट्रीय शिक्षा परिवार से ही शुरू करनी 2/4

    5. शिक्षा के उद्देश्य

    स्वामी विवेकानन्द के अनुसार शिक्षा के उद्देश्य निम्नलिखित होने चाहिए- पूर्णता को प्राप्त करने का उद्देश्य स्वामी जी के अनुसार शिक्षा का प्रथम उद्देश्य अन्तर्निहित पूर्णता को प्राप्त करना हैं। उनके अनुसार लौकिक तथा आध्यात्मिक सभी ज्ञान मनुष्य के मन में पहले से ही विद्यमान रहते हैं। इस पर पडे आवरण को उतार देना ही शिक्षा हैं इस लिए शिक्षा ऐसी हो जिससे मनुष्य के अन्तर्निहित ज्ञान अथवा पूर्णता की अभिव्यक्ति हो सके।

    • शारीरिक एवं मानसिक विकास का उद्देश्य विवेकानन्द जी के अनुसार शिक्षा का दूसरा उद्देश्य बालक का शारीरिक एवं मानसिक विकास है। शारीरिक उद्देश्य पर उन्होंने इस लिए बल दिया जिससे आज के बालक भविष्य में निर्भिक एवं योद्धा के रूप में गीता का अध्ययन करके देश की उन्नति कर सकें। मानसिक उद्देश्य पर बल देते हुए उन्होंने बताया कि हमें ऐसी शिक्षा की आवश्यकता है जिसे प्राप्त करके मनुष्य अपने पैरो पर खड़ा हो जाये।
    • नैतिक तथा आध्यात्मिक विकास का उद्देश्य- स्वामी जी का विश्वास था कि किसी देश की महानता केवल उसके संसदीय कार्यों से नहीं होती अपितु उसके नागरिको की महानता से होती है और नागरिकों को महान बनाने के लिए उनका नैतिक तथा आध्यात्मिक विकास परम आवश्यक है अतः शिक्षा को नैतिक एवं आध्यात्मिक विकास पर बल देना चाहिए।
    • आत्मविश्वास तथा श्रद्धा एवं आत्मत्याग की भावना का उददेश्य स्वामी जी ने आजीवन इस बात पर बल दिया कि अपने ऊपर विश्वास रखना, श्रद्धा तथा आत्मत्याग की भावना को विकसित करना शिक्षा का महत्त्वपूर्ण उद्देश्य है। उन्होंने अकादमिक अनुसंधान और विकास का अंतर्राष्ट्रीय जर्नल।
    • लिखा है- "उठो! जागो और उस समय तक बढ़ते रहो जब तक कि चरम उद्देश्य की प्राप्ति न हो जाये।" 
    • विभिन्नता मे एकता की खोज का उद्देश्य- स्वामी जी के अनुसार शिक्षा का मुख्य उद्देश्य विभिन्नता में एकता की खोज करना है। उन्होंने बताया कि आध्यात्मिक तथा भौतिक जगत एक ही है अतः शिक्षा ऐसी हो जो बालक को विभिन्नता में एकता की अनुभूति करना सीखाए ।

    धार्मिक विकास का उद्देश्य स्वामी जी चाहते थे कि प्रत्येक व्यक्ति उस सत्य एवं धर्म को मालूम कर सके जो उसके अन्दर छिपा हुआ है। इसके लिए उन्होंने मन तथा हृदय के प्रशिक्षण पर बल दिया और बताया कि शिक्षा ऐसी होनी चाहिए जिसे प्राप्त करके बालक अपने जीवन को पवित्र बना सके तथा उसमें आज्ञापालन, समाजसेवा एवं महापुरूषों और सन्तों के अनुकरणीय आदर्शों को अपनाने की क्षमता विकसित हो जाये।

    6. पाठ्यक्रम स्वामी जी के अनुसार

    पाठ्यक्रम स्वामी जी के अनुसार जीवन का चरम लक्ष्य आध्यात्मिक विकास है इसलिए उन्होंने पाठ्यक्रम के अन्तर्गत उन सभी विषयों को सम्मिलित किया जिनके अध्ययन से आध्यात्मिक उन्नति के साथ-साथ भौतिक उन्नति भी हो सके। स्वामी जी ने आध्यात्मिक पूर्णता के लिए धर्म, दर्शन, पुराण, उपनिषद, साधु-संगत, उपदेश तथा कीर्तन और लौकिक समृद्धि के लिए भाषा, भूगोल, राजनीति, अर्थशास्त्र, विज्ञान, मनोविज्ञान, कला, व्यावसायिक विषय, कृषि, प्रावैधिक विषय खेल-कूद तथा व्यायाम आदि विषयों को पाठ्यक्रम में सम्मिलित करने पर जोर दिया ।

    • शिक्षण पद्धति - स्वामी जी ने सैद्धान्तिक शिक्षा का खण्डन करते हुए व्यावहारिक शिक्षा पर बल दिया और भारत की उसी प्राचीन आध्यात्मिक शिक्षण पद्धति को अपनाने पर बल दिया जिसमें गुरु और शिष्य के सम्बन्ध अत्यन्त घनिष्ठ रहते है।
    • बालक का स्थान- फ्रोबेल की भाँति स्वामी जी ने भी बालक को शिक्षा का केन्द्र बिन्दु माना तथा बताया कि बालक लौकिक तथा आध्यात्मिक सभी प्रकार के ज्ञान का भण्डार होता हैं। इसलिए बालक को स्वयं विकसित होने का सुझाव देते हुए कहा- "अपने अन्दर जाओ और उपनिषदों को अपने में से बाहर निकालो। तुम सबसे महान् पुस्तक हो जो कभी थी अथवा होगी। जब तक अन्तरात्मा नहीं खुलती, समस्त बाह्य शिक्षण व्यर्थ है ।"
    • शिक्षक का स्थान - स्वामी जी को स्वयं शिक्षा में विश्वास था। वे कहते थे कि हम में से प्रत्येक व्यक्ति अपना स्वयं शिक्षक हैं। अतः शिक्षक के स्थान पर प्रकाश डालते हुए स्वामी जी कहते हैं कि "शिक्षक एक दार्शनिक, मित्र तथा पथ-प्रदर्शक है जो बालक को अपने ढंग से अग्रसर होने के लिए सहायता प्रदान करता है।"

    जन साधारण की शिक्षा स्वामी जी ने तत्कालीन भारतीय समुदाय की आर्थिक दृष्टि से हीन दशा को सुधारने के लिए जन साधारण की शिक्षा पर बल दिया और कहा- "मैं जन-साधारण की अवहेलना करना महान् राष्ट्रीय पाप समझता हूँ। यह हमारे पतन का मुख्य कारण है। जब तक भारत की सामान्य जनता को एक बार फिर उपयुक्त शिक्षा, अच्छा भोजन तथा अच्छी सुरक्षा नहीं प्रदान की जायेगी तब तक प्रत्येक राजनीति बेकार सिद्ध होगी।" देश की वर्तमान व भविष्य में आने वाली परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए हमें अपनी वर्तमान शिक्षा प्रणाली में महत्त्वपूर्ण परिवर्तन करने की महत्ती आवश्यकता है। हमें ऐसी शिक्षा की आवश्यकता है जो समय के अनुकूल हो।

    7. विवेकानन्द का सामाजिक चिंतन

    एक बार विवेकानन्द जी ने घोषणा की थी. "मैं समाजवादी हूँ इसलिए नहीं कि मैं इसे पूर्ण रूप से निर्दोष व्यवस्था समझता हूँ, बल्कि इसलिए कि आधी रोटी अच्छी हैं, कुछ नहीं से।" समाजशास्त्री डॉ. वी. पी. वर्मा के अनुसार, "विवेकानन्द समाजवादी इसलिए थे कि उन्होंने राष्ट्र के समस्त नागरिकों के लिए समान अवसर के सिद्धान्त का समर्थन किया था। उनमें यह समझने की ऐतिहासिक दृष्टि थी कि भारतीय इतिहास में दो उच्च जातियों ब्राह्मणों व क्षत्रियों का आधिपत्य रहा है, ब्राह्मणों ने गरीब जनता को जटिल धार्मिक क्रियाकलापो व अनुष्ठानों में जकड़ रखा है और क्षत्रियों ने उनका आर्थिक व राजनैतिक रूप से शोषण किया है। वे रूस के क्रान्तिकारी विचारक प्रिंस क्रोपोटिलिन से मिले। समाजवादी विचारो ने उनके मनमस्तिष्क पर जर्बदस्त प्रभाव डाला और उन्होंने स्वयं को समाजवादी कहना शुरू कर दिया ।

    इनकी रचनाओं में सामाजिक समानता का जो समर्थन देखने को मिलता है वह प्रबल पुरातनवाद तथा ब्राह्मणों की स्मृतियों में व्याप्त सामाजिक ऊँच-नीच के सिद्धान्त का प्रबल प्रतिवाद है। स्वामी जी ने स्वयं भारत भ्रमण के समय अपनी आँखो में भयानक निर्धनता, अज्ञानता, बुभुक्षितः नग्न बच्चे, अर्द्धनग्न स्त्री-पुरुष, निर्धन एवं निरक्षर ग्रामीण, अवैज्ञानिक खेती, सिंचाई के साधनों का अभाव, गॉवों में अस्वच्छता, अत्यंत निम्न जीवन स्तर धार्मिक आडम्बर, अन्धविश्वास, सामाजिक कुरीतियों आदि के रूप में विपन्न भारत का दर्शन किया। लोग निर्धनता एवं अज्ञानता के कारण पशुवत जीवन व्यतीत कर रहे थे।

    इस अमानवीय स्थिति को देख कर मानवीय संवेदना से युक्त स्वामी जी का हृदय अत्यंत द्रवित हुआ। उन्हेंने अपने अंतःप्रेरणा से आत्ममुक्ति के स्थान पर राष्ट्रमुक्ति-राष्ट्र को निर्धनता एवं अज्ञानता से मुक्ति दिलाने, दीन-दुखियों के उद्धार हेतु कार्य करने तथा राष्ट्र के पुनः निर्माण मे संलग्न होने का संकल्प किया और आजीवन मानवता की सेवा ही अपने जीवन का लक्ष्य निर्धारित किया |

    8. अस्पृश्यता का विरोध व दलितों का उत्थान

    स्वामी विवेकानन्द के हृदय में गरीबों एवं पददलितों के प्रति असीम संवेदना थी। उन्हेंने कहा, राष्ट्र का गौरव महलो में सुरक्षित नहीं रह सकता, झोपडियों की दशा भी सुधारनी होगी गरीबों यानी दरिद्रनारायण को उनके दीन-हीन स्तर से ऊँचा उठाना होगा। यदि गरीबों एवं शूद्रों को दीन-हीन रखा गया तो देश व समाज, 3/4 का कोई कल्याण नहीं हो सकता। विवेकानन्द की समाजवादी अन्तरआत्मा ने चीतकार कर कहा कि "मैं उस भगवान या धर्म पर विश्वास नहीं कर सकता जो ना तो विधवाओं के आँसू पोछ सकता हैं और न तो अनाथों के मूँह में एक टूकड़ा रोटी ही पहुँचा सकता है ।"

    बाल विवाह का विरोध विवेकानन्द जी ने बाल विवाह की भर्त्सना की और कहा, "बाल विवाह मे असामयिक सत्तानोत्पति होती है और अल्पायु में संतान धारण करने के कारण हमारी स्त्रियाँ अल्पायु होती हैं, उनकी दुर्बल और रोगी संताने देश में भिखारियों एवं अपराधियों की संख्या बढ़ाने का कारण बनती है |

    • आत्मविश्वास पर बल- विवेकानंद जी ने स्वयं पर विश्वास करने की प्रेरणा दी। आत्मविश्वास रखने पर ही व्यक्ति में कुछ करने की क्षमता विकसित होती है और आत्मविश्वासी समाज ही समस्त बाधाओं को लाँघकर ऊपर उठता हैं। विवेकानंद जी ने कहा "लोग कहते हैं- इस पर विश्वास करो, उस पर विश्वास अकादमिक अनुसंधान और विकास का अंतर्राष्ट्रीय जर्नल करो, मैं कहता- पहले अपने आप पर विश्वास करो अपने पर विश्वास करो। सर्वशक्ति तुम में है- कहो हम सब कर सकते हैं । "
    • स्त्रियों को शिक्षा के समान अवसर- स्वामी जी ने नारी उत्थान के लिए स्त्री शिक्षण पर बल देते हुए कहा- "पहले अपनी स्त्रियों को शिक्षित करो, तब ये आपको बताएँगे की उनके लिए कौन से सुधार आवश्यक हैं, उनक मामले में बोलने वाले तुम कौन होते हो।" समाज स्त्री पुरूष दोनो से मिलकर बना है। दोनो की शिक्षा पर ही देश का पूर्ण विकास संभव हैं। पक्षी आकाश में एक पंख से नहीं उड़ सकते, उसी प्रकार देश का सम्यक् उत्थान मात्र पुरूषों की शिक्षा से संभव नहीं है। स्त्रियों को पुरूषों के समान ही शिक्षा प्राप्त करने का सुअवसर सुलभ होना चाहिए।"
    • व्यवसायिक विकास पर बल- भारत एक निर्धन देश है और यहाँ कि अधिकांश जनता मुश्किल से ही अपनी मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति कर पाती है। स्वामी जी ने इस तथ्य एवं सत्य को हृदयंगम किया तथा यह अनुभव किया कि कोरे आध्यात्म से ही जीवन नहीं चल सकता जीवन चलाने के लिए कर्म आवश्यक है। इसके लिए उन्होंने शिक्षा के द्वारा मनुष्य को उत्पादन एवं उद्योग कार्य तथा अन्य व्यवसायों में प्रशिक्षित करने पर बल दिया |

    8. निष्कर्ष

    स्वामी विवेकानन्द का विचार, दर्शन और शिक्षा अत्यंत उच्चकोटि के है जीवन के मूल सत्यों रहस्यों और तथ्यों को समझने की कुँजी हैं। उनके शब्द इतने असरदार है कि एक मुर्दे में भी जान फूँक सकते हैं। वे मानवता के सच्चे प्रतीक थें, है और मानव जाति के अस्तित्व को जन साधारण के पास पहुँचाने का अभूतपूर्व कार्य किया। वे अद्वैत वेदांत के प्रबल समर्थक थे उन्होंने अपनी संस्कृति को जीवित रखने हेतु भारतीय संस्कृति के मूल अस्तित्व को बनाये रखने का आह्वान किया ताकि आने वाली भावी पीढ़ी पूर्ण संस्कारिक, नैतिक गुणों से युक्त न्यायप्रिय, सत्यधर्मी और आध्यात्मिक तथा भारतीय आदर्श के सच्चे प्रतीक के रूप में विश्व में अपना वर्चस्व बनाए रखें।

    स्वामी विवेकानंद जी युग दृष्टा और युग सृष्टा थे। युगदृष्टा की दृष्टि से उन्होंने अपने समय की स्थिति को देखा समझा था और युगसृष्टा उस दृष्टि की उन्होंने नवभारत की नींव रखी थी। वे भारतीय धर्म दर्शन की व्यवस्था आधुनिक परिप्रेक्ष्य में करने, वेदांत को व्यवहारिक रूप देने एवं उसके प्रचार करने और समाज सेवा एवं समाज सुधार करने के लिए बहुत प्रसिद्ध है परंतु इन्होंने शिक्षा की आवश्यकता पर बहुत बल दिया और नवभारत के निर्माण के लिए तत्कालिन शिक्षा में सुधार हेतु अनेक सुझाव दिए। जवाहर लाल नेहरू जी ने भी उनके बारे में एक बार कहा था "भारत के अतीत में अटल आस्था रखते हुए और भारत की विरासत पर गर्व करते हुए भी विवेकानंद जी का जीवन की समस्याओं के प्रति आधुनिक दृष्टिकोण था और वे भारत के अतीत तथा वर्तमान के बीच एक प्रकार के संयोजक थे।" 

    हमारे राष्ट्र की आत्मा झुग्गी में निवास करती है अतः शिक्षा के दीपक को घर-घर ले जाना होगा, तभी तो सारा जन समाज प्रभुद्ध हो सकेगा। शिक्षा मंदिर के द्वार सभी व्यक्तियों के लिए खोल दिए जाये, जिससे कोई भी अनपढ़ न रहें। शिक्ष आजाद हो। दृढ़ लगन और कर्म की शिक्षा ही जन समूह को उचित शिक्षा दिला सकती है । शिक्षा के द्वारा देश के विकास को चर्म पर ले जाए और सर्व धर्म के द्वारा सच्ची मानवता को अपनाकर ईश्वर की सेवा करे। तो आइए हम एक होकर राष्ट्रीय नव चेतना जगाएँ, नए समाज एव नवयुग का निर्माण करें।


    संदर्भ

    • विवेकानंद साहित्य, खंड 5 पृ. 138-139 2. विवेकानंद साहित्य, खण्ड 2 पृष्ठ 321
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