बागवानी एवं वृक्षारोपण
वाटिका अभिविन्यास
बीज द्वारा प्रवर्धन , काधिक प्रवर्धन - कलम लगाना और दाब लगाना
वाटिका अभिविन्यास
वाटिका का अर्थ प्राय : फूलों की वाटिका से ही समझा जाता है । वाटिका चाहे विद्यालय की हो , घर की हो अथवा कहीं की हो , आस - पास के वातावरण को आकर्षक व मनोहारी बनाती है ।
क्या आपने अपने विद्यालय की वाटिका को कभी ध्यान से देखा है ? यह वाटिका कैसे बनाई गई होगी ? इसे सुन्दरता कैसे प्रदान की गई होगी ? रंग - बिरंगे फूलों वाले पौधे कैसे और किस प्रकार से लगाये गये होंगे ? क्या इन बातों पर आपने कभी विचार किया है ? प्राय : वाटिका को तीन भागों में बाँट सकते है जैसे - पुष्प वाटिका , गृहवाटिका एवं विद्यालय वाटिका ।
वाटिका कहाँ बनाई जाय , इसका आकार क्या हो , इसमें किस प्रकार के फूल एवं लुभावनी पत्तियों वाले पौधे , लतर , झाड़ीदार पौधे , पेड़ आदि किस स्थान पर लगाये जाय ? इन सब बातों की जानकारी करना बहुत आवश्यक है । प्राप्त सुविधाओं में ही वाटिका लगाने वाला व्यक्ति यदि कुशल है , अच्छी सूझ बूझ वाला है तो वह कौशलपूर्ण रेखांकन द्वारा वाटिका को बहुत सुन्दर रूप में स्थापित कर सकता है । वास्तव में वाटिका लगाने के कुछ नियम हैं जिन्हें ध्यान में रखना चाहिए ।
मान लीजिए कि आपके विद्यालय का क्षेत्र छोटा है , ऐसी स्थिति में विद्यालय भवन एक किनारे बनाना चाहिए । इस भवन के सामने वाटिका लगानी चाहिए । यदि क्षेत्र बड़ा है तो विद्यालय भवन बीच में रखना चाहिए । सामने शोभाकारी वृक्ष , हरियाली , फूलों के पौधे , झाड़ीदार पौधे और मौसमी फूलों की पट्टी आदि लगाना चाहिए । पुष्प वाटिका में विचरण लिए मार्ग तथा वाटिका के चारों ओर खूबसूरत बाड़ को स्थान देना चाहिए । विद्यालय भवन और वाटिका के दृश्य में परस्पर मेल होना चाहिए । इसी तरह से आपके घर के पास स्थित गृह वाटिका का व्यवस्थित अभिविन्यास भी होनी चाहिए ।
वाटिका एक कलात्मक विज्ञान है । वाटिका लगाना एक कौशलपूर्ण , क्रमबद प्रबन्धन तथा रेखांकन है जिसमें पौधों की ऊँचाई एवं फूलों की रंग योजना के अनुसार पौधे लगाये जाते हैं जिन्हें देखकर मन मस्तिष्क पर आकर्षक चित्र अंकित होता है ।
वाटिका लगाते समय ध्यान देने योग्य बातें
( क ) पेड़ तथा पौधे सघन नहीं लगाने चाहिये ।
( ख ) मार्ग के दोनों ओर झाड़ियाँ लगानी चाहिए । झाड़ियाँ सुन्दर पत्तियों , फूलों वाली होनी चाहिए ।
( ग ) शोभाकारी वृक्ष तथा झाड़ीनुमा पेड़ एक किनारे पर लगाने चाहिए ।
( घ ) लतायें स्तम्भों के सहारे लगानी चाहिए ।
( ङ ) अलंकृत पत्तियों वाले तथा छाया चाहने वाले पौधे छायादार स्थानों में लगाने चाहिए ।
( च ) वाटिका में फूलवाले पौधों को इस व्यवस्था के साथ लगाना चाहिये कि वर्ष के हर महीने फूल खिलते रहें ।
( छ ) वाटिका के प्रवेश द्वार पर भी सुन्दर सुगन्धित फूलों वाली लतायें लगानी चाहिए ।
( ज ) पौधे चाहे क्यारियों में हों या मार्ग के दोनों किनारे अथवा अलग - अलग हों , सिंचाई के लिए क्यारी आवश्यकता के अनुसार बनानी चाहिए ।
( झ ) वाटिका में आकर्षण होना चाहिए । इसके लिए पौधों की अधिक से अधिक किस्में लगानी चाहिए ।
अलंकृत महत्त्व वाले पौधे
वृक्ष ( पेड़ )
गुलमोहर ( नारंगी लाल ) , अमलताश ( पीला ) , कचनार ( गुलाबी , बैंगनी , सफेद ) , गुलाचीन ( गुलाबी , सफेद ) , सिलवर ओक आदि ।
फूलों एवं आकर्षक पत्तियों वाली झाड़ियाँ
एकेलिफा , क्रोटन , रातरानी , दिन का राजा , गुड़हल , ( लाल , गुलाबी , पीला , बैगनी , सफेद फूल ) , कनेर ( लाल , सफेद , पीला फूल ) , इक्जोरा , मेंहदी , चांदनी , नीलकांटा , हरसिंगार , सावनी , बेला , कामिनी , सावनी , बोगनवीलिया ।
लतायें
वोगन वीलिया , ऐन्टीगोनन लेप्टोपस , बिगनोनियां , टिकोमा , ग्रैण्डीफ्लोरा आदि ।
गमले वाले पौधे ( छायादार )
ऐस्पेरेगस प्रजाति , ब्रायोफाइलम प्रजाति , ड्रेसिना प्रजाति , फर्न , सिन्सबेरिया ( मर्जिनेटा सिलिण्डूिका ) , पोथाज , डिफेनबेकिया आदि ।
गमले वाले ( सामान्य )
गुलदाउदी ( क्राइसेन्थिमम ) , कोलियस , ट्रेडेस्केन्शिया , गेंदा ( नाटे कद का ) , रजनी गन्धा , गुलाब , बेला आदि ।
शैलवाटिका पौधे
अगेव अमेरिकाना , अगेव , फिलिफेरा , ऐन्थ्यूरिम प्रजाति , कैक्टस ( नागफनी ) प्रजाति , फर्न , यूफोरबिया आदि ।
मौसमी फूलों वाले पौधे
जाड़ा - गेंदा , हालीहाँक , फ्लाक्स , कलेण्डुला , डहेलिया , कैण्डीटफ्ट , आदि ।
गर्मी - सूरजमुखी , पोर्चुलाका , कोचिया , आदि ।
बरसात - मुर्ग केश , बालसन , जीनियां आदि ।
गुलाब - कलकतिया , चैती ( देशी ) ।
आयातित किस्में
डेलहीप्रिंसेज , मोहिनी , सुजाता , सूर्योदय , स्वाती , गंगा , भीमद्ध चितवन , सुपरस्टार , हैप्पीनेस , क्वीन एलिजाबेथ हिमंगिनी , सुगन्धिनी , चितचोर , गोल्डेनशावर ( लतर गुलाब ) आदि ।
प्रवर्धन
क्या आपने कभी देखा है कि चने का एक दाना बो दिया जाता है तो एक पौधा तैयार हो जाता है । चने के इस पौधे पर बहुत सी फलियां लगती हैं । हर फली में एक चना होता है । पकने के बाद यही चना पुन : बोने पर पौधा बन सकता है । एक बीज से अनेक बीज और इन बीजों के द्वारा अनेक पौधे हमें प्राप्त होते हैं । एक से अनेक पौधे तैयार करने को हम प्रवर्धन कहते है । प्रवर्धन का दूसरा नाम प्रसारण भी है । चने की तरह मटर , गेहूँ , धान , फलों , पौधे , सब्जियों और फूलों में भी प्रवर्धन क्रिया की जाती है ।
बीज में एक नन्हा पौधा छिपा रहता है । जब बीज को अंकुरण के लिए उचित वातावरण , नमी और ताप मिल जाता है तो वह बीज अंकुरित हो कर पौधा बन जाता है ।
प्रवर्धन दो प्रकार का होता है - 1 . बीज द्वारा प्रवर्धन 2 . कायिक प्रवर्धन
1 . बीज द्वारा प्रवर्धन बीज द्वारा जब बहुत से पौधे तैयार किये जाते हैं तब हम इस क्रिया को बीज प्रवर्धन कहते हैं । बीज द्वारा पौध उगाने पर उसमें मातृ पौधे के सभी गुण आ जायें यह निश्चित नहीं रहता है ।
बीज प्रवर्धन के लाभ
( क ) पेड़ अधिक ऊँचे तथा फैलने वाले होते हैं । पेड़ों की आयु अधिक होती है ।
( ग ) पेड़ बहुत मजबूत होते हैं ।
( घ ) बीमारियों तथा मौसम के प्रकोप को सहन करने की इनमें शक्ति होती है । प्रति पेड़ उपज अधिक होती है ।
( च ) यह सबसे सरल एवं सस्ती विधि है ।
बीज प्रबंधन से हानि
( क ) पौधे मातृ वृक्ष के समान नहीं होते हैं ।
( ख ) वृक्ष अधिक ऊंचा होने के कारण फलों की तुड़ाई में कठिनाई होती है ।
( ग ) फल अच्छी गुणवत्ता वाले नहीं होते हैं ।
( घ ) फल देर से लगता है ।
2 . कायिक प्रवर्धन क्या आपने देखा है कि बीज के अलावा पौधे के दूसरे अंगों से भी एक नया पौधा तैयार हो जाता है । जड़ , तना , शाखा , पत्ती , कली मिलकर पौधे का पूरा शरीर बनाते हैं । जड़ , तना , पत्ती , शाखा , कली ( पत्रकली ) पौधे की काया के अंग हैं । इसमें से पौधे के किसी भी अंग से नया पौधा तैयार करने को हम कायिक प्रवर्धन कहते हैं ।
कायिक प्रवर्धन के लाभ
( क ) फल का पेड़ जल्दी फलने लगता है ।
( ख ) ऐसे पेड़ एक प्रकार के ही फल उत्पन्न करते हैं ।
( ग ) पेड़ पर फल एक ही समय में पकते हैं ।
( घ ) एक किस्म के पेड़ के सभी फल आकार , रूप रंग , स्वाद तथा सुगन्ध में एक होते हैं ।
( ङ ) कांटे कम होते हैं । कायिक प्रवर्धन वाले पौधे में मातृ पौधे के सभी गुण होते हैं ।
( छ ) पेड़ छोटे तथा कम फैलने वाले होते हैं । जिससे कृषि क्रियाओं तथा उनकी देखभाल करने में आसानी होती है ।
( ज ) ऐसे पौधों में अनेक लाभकारी गुणों का समावेश किया जा सकता है ।
( झ ) कायिक प्रवर्धन से ऐसे पौधों की भी संख्या बढ़ाई जा सकती है जो बीज पैदा नहीं करते ।
काविक प्रवर्धन की विधियाँ - 1 . कलम लगाना 2 . दाब लगाना
कलम पौधे की शाखा या टहनी से काटी जाती है । टहनी की मोटाई पेन्सिल के बराबर होनी चाहिए साधारणतः कलम की लम्बाई 22 से 25 सेमी रखी जाती है । यह ध्यान रखना चाहिए कि इस कलम में कम से कम 4 - 5 कलिकायें हों । कलम का ऊपरी भाग ऊपरी कलिका से लगभग 2 सेमी ऊपर उठकर तिरछा काटना चाहिए तथा नीचे के छोर को सबसे नीचे की कलिका से लगभग 2 सेमी नीचे हट कर समतल काटना चाहिए । कलम को जमीन में लगभग 45° का कोण बनाते हुए तिरछा लगाना चाहिए । कलम की कम से कम दो कलिकायें मिट्टी के भीतर रहनी चाहिए । कलम लगाने के तुरन्त बाद पानी देना चाहिए । सामान्यत : कलम बरसात में लगाई जाती है । ठंढे स्थानों में यह कार्य फरवरी में किया जाता है । कलमों में सबसे पहले पत्तियाँ निकलती हैं , जड़ें इसके बाद निकलती हैं । कलमों में पत्तियाँ निकलने के लगभग 30 से 45 दिनों बाद , जब इनमें पूरी तरह जड़ें निकल जायें तो इन्हें खोद कर स्थायी रूप से जहाँ लगाना हो , लगा देना चाहिए । गुलाब , क्रोटन , झाड़ीदार पौधे तथा अंगूर आदि इसी विधि से उगाये जाते हैं । कलमों के निचले भाग में सेरडिक्स पाउडर नामक हार्मोन लगाने से जड़ें शीघ्र निकलती हैं ।
सामान्य कलम लगाने में टहनी का जड़ निकलने से पहले मातृ पौधे से काट कर अलग करते हैं । दाब कलम में टहनी मातृ पौधे से जुड़ी रहने देते हैं । टहनी को थोड़ा झुका कर जमीन की मिट्टी में दबा देते हैं । जब उसमें जड़ें आ जाती हैं और टहनी एक स्वतन्त्र पौधे का रूप ग्रहण कर लेती है , तब उसे मातृ पौधे से अलग कर के स्थाई जगह में लगाते हैं ।
इसकी दो विधियाँ है - ( क ) साधारण दाब ( ख ) गूटी बाँधना
( क ) साधारण दाब - शाखा झुकाकर जमीन या गमले में दबा देते हैं । शाखा के जिस भाग को दबाते हैं , उस भाग के छिलके पर या तो चाकू से चीरा लगा देते है या हाथ से मसल कर छिलके को ढीला कर देते हैं । इस स्थान पर भी सेरेडिक्स हार्मोन लगा देने से जड़ें शीघ्र निकलती हैं । जड़ें निकल आने के बाद दबी हुई टहनी को मातृ पौधे की ओर ( 3 - 5सेमी ) से काट देते हैं । अब टहनी मातृ पौधे से पूरी तरह अलग हो जाती है । फिर इसे खोद कर स्थाई जगह पर लगा देते हैं । लगाने के तुरन्त बाद पानी देते हैं । बेला , चमेली , आदि का प्रवर्धन इसी विधि से किया जाता है ।
( ख ) गूटी बाँधना - इसके लिए लगभग एक वर्ष पुरानी शाखा को चुन कर गांठ के नीचे 3 - 4 सेमी की लम्बाई में छिलका निकाल देते हैं । इसे छाल परिवर्तन कहते हैं । कटे भाग पर मॉस घास को अच्छी तरह भिगो कर लपेट देते हैं । फिर उसके ऊपर पारदर्शी पॉलीथीन लपेट कर दोनों सिरों पर मजबूत धागा बांध देते हैं । 6 से 7 सप्ताह में जड़ें निकल आती हैं ,
जो पारदर्शी पॉलीथीन होने के कारण बाहर से दिखाई देती हैं । लगभग 40 से 45 दिन बाद गूटी को दाब कलम की भाँति काट कर मातृ पौधे से अलग कर देते हैं । फिर जहाँ आवश्यकता हो लगा देते हैं । गूटी बांधने से पहले हार्मोन का प्रयोग करने से जडे शीघ्र निकल आती हैं । इस विधि से दो से ढाई महीने में पौधे तैयार हो जाते हैं । लीची , नींबू तथा लतर वाले पौधे गूटी विधि से ही तैयार किये जाते हैं । इस विधि को वायवीय दाब या अण्टा बांधना भी कहते हैं ।
विशेष - ऊतक संवर्द्धन ( Tissue culture ) : - कायिक जनन की यह एक नयी विधि है । ऐसे पौधे जो नष्ट होने के कगार पर हैं या जिनके बीज आसानी से तैयार नहीं होते हैं या जिनकी जातियाँ दुर्लभ हैं या कुछ । सजावटी पौधे जिन्हें आसानी से उगाया नहीं जा सकता , उन पौधों से थोड़ा सा ऊतक ( कोशिकाओं का समूह ) काटकर पोषक माध्यम ( वैज्ञानिक विधि से तैयार रसायन मिश्रण ) में उचित वातावरण में रख देते हैं । उचित वातावरण , ग्रीन हाउस में कृत्रिम ढंग से वर्ष के सभी महीनों में बनाये रखते हैं । ऊतक की कोशिकायें अनियमित विभाजन द्वारा कैलस ( callus ) का निर्माण करती हैं । पोषक माध्यम के अन्दर कुछ हार्मोन्स ( वृद्धि हारर्मोन्स ) डाल दिये जाते हैं जिससे कैलस से प्ररोह ( Shoot ) तथा मूल ( Root ) तथा भ्रूण बनते हैं । इसे गमले या खेत में लगाकर वयस्क पौधे तैयार किये जाते हैं । आर्किड , सतावर तथा गुलदाउदी आदि के नवीन पौधे इस विधि द्वारा तैयार किये जाते हैं ।