ब्रिटिश शासन के प्रारम्भिक वर्षों में शिक्षा
( Education in Early Years of British Rule )
भारतवर्ष अतीत काल से ही अपनी सांस्कृतिक धरोहर , साहित्यिक सृजन , शैक्षिक क्रियाकलापों तथा आर्थिक समृद्धि के लिए विश्वविख्यात रहा है । पाश्चात्य देश भारतीय सोने - चाँदी तथा गर्भ मसालों के लिए लालायित रहते थे एवं भारतीय शिक्षा के उत्कृष्ट अध्ययन केन्द्रों में शिक्षा प्राप्त करने के लिए अनेकानेक विदेशियों के आने का उल्लेख इतिहास के पन्नों में विद्यमान है । धर्मपाल ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक दों ब्यूटीफुल ट्रीः इन्डीजिनियस इन्डियन ऐजुकेशन इन दा ऐटीन्य सैचरी में भारत में विशाल संख्या में शिक्षा संस्थाएं होने की चर्चा की है । माहात्मा गांधी तथा प्राच्य शिक्षा के समर्थक अन्य अनेक विधारकों ने भी अंग्रेजी शासन के प्रारम्भिक वर्षों में देशी शिक्षा व्यवस्था के सुदृढ़ होने एवं अंग्रेजों के द्वारा उसे धीरे - धीरे नष्ट करने का प्रयास करने व इस दुष्कार्य में सफल होने का जिक्र समय - समय पर किया है । वस्तुतः वास्को - डी - गामा के द्वारा सन् 1498 में आशा अन्तरीय ( Kape of Good Hope ) की ओर से भारत पहुँधने के जलमार्ग की खोज करने के फलस्वरूप सोलहवीं शताब्दी में पुर्तगालियों ने भारत से व्यापार करना प्रारम्भ कर दिया तथा खूब लाभ अर्जित किया । पुर्तगालियों को हो रहे प्रचुर लाभ से प्रलोभित होकर यूरोप के अन्य देशों ने भी भारत के साथ व्यापार आरम्भ कर दिया । व्यापारिक प्रतिद्वन्दिता में अंग्रेजों ने पुर्तगालियों , डचों तथा फ्रांसीसियों आदि को परास्त करके कालान्तर में भारत में अपना एक छत्र व्यापारिक व राजनैतिक साम्राज्य स्थापित किया ।
ब्रिटिश व्यापारियों द्वारा स्थापित ब्रिटिश ईस्ट इण्डिया कम्पनी सन् 1601 में व्यापार करने के लिए भारत में आई थी । लगभग डेढ़ शताब्दी तक कम्पनी अपने अस्तित्व के लिए अन्य यूरोपीय व्यापारिक संस्थाओं तथा भारतीय राजाओं के साथ झगड़ों में उलझी एक विशुद्ध व्यापारिक संस्था थी । परन्तु सन् 1757 में प्लासी के युद्ध में क्लाइव की विजय से बंगाल का शासन अंग्रेजों के हाथ में आ गया तथा इसके बाद धीरे - धीरे सम्पूर्ण भारतवर्ष पर ईस्ट इण्डिया कम्पनी का अधिकार हो गया । सन् 1857 में ब्रिटिश शासन ने भारत का शासन प्रवन्ध अपने अधिकार में ले लिया । तब से लेकर 15 अगस्त सन् 1947 तक ब्रिटिश संसद अपने प्रतिनिधि के माध्यम से भारत पर शासन करती रही थी । ब्रिटिश शासन के दौरान अनेक राजनैतिक तथा आर्थिक कारणों से भारतीय शिक्षा में अनेक युगान्तर परिवर्तन आये ।
ईस्ट इण्डिया कम्पनी मूलतः एक व्यापारिक संस्था थी जो भारत में धन कमाने आई थी न कि शासन करने के लिए । परिस्थितवश ही वह भारत की शासिका बन गयी थी । अतः उसका कार्य उस समाज को शिक्षित करना ही नहीं था , जिसके सर्वस्व हरण करने का उद्देश्य लेकर वह भारत आयी थी । परन्तु भारतीय जनता अंग्रेजों की भाषा नहीं समझती थी तथा अंग्रेज भारतीयों की भाषा नहीं समझते थे जिससे कम्पनी को अपना कार्य चलाना अत्यन्त कठिन प्रतीत होता था । कम्पनी के कर्मचारी महसूस करते थे कि स्थानीय निवासियों के साथ मुक्त व प्रत्यक्ष सम्पर्क तथा बातचीत करना अत्यन्त उपयोगी तथा आवश्यक है । क्योंकि अंग्रेज अपनी भाषा को श्रेष्ठ तथा भारतीय भाषाओं को निष्कृष्ट समझते थे , इसलिए वे भारतीय भाषा नहीं सीखना चाहते थे । ऐसी स्थिति में भारतीयों को अंग्रेजी भाषा का ज्ञान प्रदान करना ही उन्हें सबसे सरल व प्रभावशाली उपाय प्रतीत हुआ । अपने इस स्वार्थ के लिए ईस्ट इण्डिया कम्पनी ने शिक्षा प्रसार में ईसाई मिशनरियों की सहायता की थी । ईसाई मिशनरियों ने धर्म प्रचार करने के लिए भी शिक्षा का सहारा लिया । इसके लिए उन्होंने अनेक स्कूलों की स्थापना की , जो कि भारत में शिक्षा के आधुनिक रूप का बीगणेश था । परन्तु कुछ परोपकारी लोगों के प्रयासों के अलावा आधिकारिक रूप में शिक्षा के क्षेत्र में कोई भी सार्थक प्रयास नहीं किया गया तथा ईस्ट इन्डिया कम्पनी भारत में जनसामान्य की शिक्षा के प्रति लगभग उदासीन ही रही ।
मिश्नरियों के शैक्षिक प्रयास
( Educational Efforts of Missonaries )
यूरोपीय व्यापारियों के भारत में व्यापार हेतु आगमन के कुछ समय उपरान्त ही यहाँ की ईसाई निश्नरियों ने भारत में धर्म प्रचार का अभियान प्रारम्भ कर दिया । पयपि इन मिश्नरियों का प्रमुख उद्देश्य भारत के निवासियों को ईसाई धर्म का अनुयायी बनाना था , फिर भी इन्होंने भारत में पाश्चात्य ढंग की शिक्षा को आरम्भ करने की दिशा में महत्वपूर्ण कार्य किया । वस्तुतः उन्होंने भारतीयों से सम्पर्क स्थापित करने तथा उन्हें अपने धर्म , विचारों व सिद्धान्तों से अवगत कराने के लिये शिक्षा की सहायता ली । इसलिये उन्होंने अपने धर्म व संस्कृति का प्रचार करने के लिए एवं भारतीयों को पाश्चात्य ढंग की शिक्षा प्रदान करने के लिए भारत में अनेक शिक्षा संस्थाओं की स्थापना की । पाश्चात्य ढंग को आधुनिक शिक्षा का श्रीगणेश करने के कारण ही ईसाई मिश्नरियों को आधुनिक भारतीय शिक्षा का प्रवर्तक माना जाता है
उस समय भारत वर्ष में मुख्यतः इध , सेन , फ्रांसिसी तथा ब्रिटिश मिश्नरियाँ कार्यरत थीं । इच मिश्नरियों ( Dutch Missionaries ) ने चिनसुरा , नागापट्टम तथा विमलीपट्टम आदि स्थानों में कई विद्यालयों की स्थापना की । डेन मिश्नरियों ( Dane Missionaries ) ने तंजौर , सीरामपुर , त्रिचनापली तथा फोर्ट सेण्ट डेविड आदि में प्राथमिक विद्यालय खोले थे । फ्रांसिसी मिश्नरियों ( French Missionaries ने माही , यनाम , कालीकाल , पांडिचेरी तथा चन्द्रनगर आदि में प्राथमिक विद्यालयों की स्थापना की । पुर्तगाली मिश्नरियों ( Portuguese Missionaries ) ने गोवा , दमन , दीव , वेसिन , कोचीन तथा हुगली आदि शहरों में अनेक शिक्षा संस्थाओं की स्थापना की । ब्रिटिश मिश्नरियों ( British Missionaries ) ने कलकत्ता , मद्रास , बम्बई तथा बंगाल के अनेक स्थानों में अनेक स्कूलों की स्थापना की ।
सीरामपुर त्रिमूर्ति ( Serampore Trio )
ब्रिटिश मिश्नरियों ने बंगाल को ईसाई धर्म प्रचार का प्रमुख केन्द्र बनाया । यहाँ के सीरामपुर नामक स्थान के तीन मिश्नरी विलियम कैरी ( William Carey ) , विलियम बार्ड ( William Ward ) तथा जोशुवा मार्शमेन ( Joshva Marshman ) , जो सीरामपुर त्रिमूर्ति ( Serampore Trio ) के नाम से प्रसिद्ध थे ईसाई धर्म के प्रचार में अत्यधिक प्रयासरत थे । दरअसल इंग्लैण्ड से आये यैप्टिस्ट मिश्नरियों की यह त्रिमूर्ति कलकत्ता में धर्म प्रचार का कार्य करना चाहती थी , परन्तु गवर्नर - जनरल वैलेजी ने इन्हें विध्वसकारी तथा शान्ति - व्यवस्था के लिए खतरा बताकर कलकत्ता में प्रवेश की अनुमति नहीं दी । तब विवश होकर इस त्रिमूर्ति को डेनमार्क के नियन्त्रण बाली बस्ती सीरामपुर में शरण लेने को विवश होना पड़ा इन्होंने सीरामपुर ( बंगाल ) में छापाखाना खोला तथा सन् 1808 में हिन्दुओं और मुसलमानों के नाम संदेश ( Adresses to Hindus and Muslims ) नामक एक पुस्तिका का प्रकाशन तथा वितरण किया । इस पुस्तिका में उन्होंने हिन्दू धर्म को अज्ञान , आडम्वर तथा निय्या से परिपूर्ण बताया एवम् मुहम्मद साहब को पैगम्बर कहा ! इसके अतिरिक्त उन्होंने पाश्चात्य ढंग के अनेक स्कूल भी खोले । उनके इन कार्यों का हिन्दुओं और मुसलमानों ने कसकर विरोध किया । हिन्दुओं और मुसलमानों की क्रोधाग्नि को शांत करने के लिए तत्कालीन अंग्रेज गवर्नर जनरल लार्ड मिंटो ( Lord Minto ) ने इन तीनों पादरियों को बंद करा दिया तथा मिश्नरियों के द्वारा धर्म प्रचार के कार्य पर रोक लगा दी । ऐसा लगता है कि ईस्ट इण्डिया कम्पनी को अनुभव होने लगा था कि धर्म प्रचार की नीति उसके राजनैतिक व व्यापारिक हितों की दृष्टि से घातक है । जिसके फलस्वरूप ब्रिटिश शासन के प्रारम्भिक वर्षों में शिक्षा // 41 उसने धार्मिक तटस्थता की नीति को अपनाना शुरू कर दिया । ईसाई पादरियों का साथ देने से शायद उन्हें डर था कि भारत में रहने वाले हिन्दू तथा मुसलमान उनसे रुष्ट हो जायेंगे ।
चार्ल्स ग्राण्ट के शैक्षिक प्रयास ( Educational Efforts of Charles Grant )
ईस्ट इंडिया कम्पनी के द्वारा निश्नरियों के धर्म प्रचार कार्य पर लगायी रोक को मिशनरियों ने धर्म विरोधी नीति की संज्ञा दी तथा इस तथाकथित ( ईसाई ) धर्म विरोधी नीति के कारण उनमें असंतोष की भावना व्यास हो गई । भारत में इस नीति का विरोध करने में असफल रहने पर मिश्नरियों तथा उनके समर्थकों ने भारत में ईसाई धर्म का प्रचार करने की स्वंत्रता प्राप्त करने के लिए इंग्लैण्ड में आंदोलन करना प्रारम्भ कर दिया । आंदोलन करने वाले व्यक्तियों में चार्ल्स ग्राण्ट प्रमुख था । वह ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कम्पनी के कर्मचारी के रूप में अनेक वर्षों तक भारत में कार्य कर चुका था तथा अवकाश प्राप्ति के बाद इंग्लैण्ड वापस लौट गया था । वह सन् 1802 में ब्रिटिश पार्लियामेन्ट का सदस्य तथा 1805 में कम्पनी का अध्यक्ष भी बना । उसने सन् 1792 में एक पुस्तिका प्रकाशित की थी जिसमें ग्रेट ब्रिटेन के एशियाई प्रजाजनों की सामाजिक स्थिति पर विचार प्रस्तुत किये गये थे । इस पुस्तिका में हिन्दुओं तथा मुसलमानों की अज्ञानता का वर्णन करते हुए इस अज्ञानता निवारण हेतु पंचसूत्री निम्नांकित योजना प्रस्तुत की थी
1. भारत में विद्यालयों की स्थापना ,
2.अंग्रेजी माध्यम से शिक्षा प्रदान करना ,
3. अंग्रेजी साहित्य की शिक्षा देना ,
4. पाश्चात्य ज्ञान य विज्ञान का प्रसार करना ,
5. ईसाई धर्म का प्रचार करना ।
अपनी इस पंचसूत्री योजना में चार्ल्स ग्राण्ट ने भारतीयों के लिए शिक्षा प्रसार की आवश्यकता को जोरदार ढंग से प्रतिपादित किया । उसकी धारणा थी कि अंग्रेजी भाषा साहित्य तया विज्ञान की शिक्षा प्राप्त करने के उपरान्त भारतीयों की विचारधारा में परिवर्तन हो जायेगा तथा तब वे सरलता से ईसाई धर्म के अनुयायी बन जायेंगे । उसका यह भी विचार था कि उसके द्वारा प्रस्तुत पंचसूत्री योजना की सफलता के लिए सरकारी संरक्षण की आवश्यकता है । चार्ल्स ग्राण्ट के द्वारा भारतीयों की शिक्षा के लिए प्रस्तुत की गई इस रूपरेखा को दाद में चलकर मान्यता दी गई । यही कारण है कि चार्ल्स ग्राण्ट को प्रायः भारत में आधुनिक शिक्षा का जन्मदाता ( Father of Modern Education in India ) कहा जाता है । तत्कालीन गवर्नर जनरल लार्ड मिंटों ने भी चार्ल्स ग्राण्ट के शिक्षा प्रयासों की सराहना की परन्तु यहाँ यह बात ध्यान देने योग्य है कि ग्राण्ट जहाँ केवल पाश्चात्य ढंग की शिक्षा का पक्षधर था वहीं लार्ड मिंटो भारतीय साहित्य के संरक्षण तथा भारतीय विद्वानों के सम्मान पर भी जोर देता था ।
चार्ल्स ग्राण्ट के विचारों से ब्रिटिश हाऊस ऑफ कॉमन्स के सदस्य रॉबर्ट विलबरफोर्स ( Robert Wilberforce ) बहुत प्रभावित हुए । जब सन् 1793 में ईस्ट इंडिया कम्पनी के आज्ञापत्र ( Charter ) के नवीनीकरण का प्रश्न हाऊस ऑफ कॉमन्स में आया तब विलयरफोर्ड ने पर्याप्त संख्या में मिश्नरियों को भारत भेजने से सम्बंधित धारा इस आज्ञापत्र में जोड़ने का प्रस्ताव रखा । परन्तु ईस्ट इंडिया कम्पनी के संचालकगण सीरामपुर त्रिमूर्ति के कार्यों के फलस्वरूप भारतीयों में उत्पन्न होने वाले क्रोध को भूले नहीं थे तथा वे भारत में अपने नवनिर्मित राज्य को खोना नहीं चाहते थे । इसलिए उन्होंने मिशनरियों को धर्म प्रचार के एक अन्य सदस्य ने कहा कि हमने अपनी शिक्षा का प्रचार करके अमरीका में अपने उपनिवशों को खो की स्वतंत्रता का कसकर विरोध किया । कम्पनी के संचालकों का समर्थन करते हुए हाऊस ऑफ कॉमन्स दिया है । इसीलिए हमें ऐसी भूल भारत में नहीं करनी चाहिए । इन विरोधों ने विलयरफोर्स के प्रस्ताव को पारित नहीं होने दिया , परंतु इस असफलता से चार्ल्स ग्राण्ट हतोत्साहित नहीं था । यह निरंतर अपने शैक्षिक प्रयासों के लिए कार्य करता रहा और अंत में जब सन् 1813 में कम्पनी के आज्ञापत्र के नवीनीकरण का पुनः अवसर आया तब वह उसमें एक नवीन धारा जुड़वाने में सफल हो गया जिसके फलस्वरूप भारत में ब्रिटिश मिश्नरियों को बिना किसी रोक - टोक के आने का अधिकार प्राप्त हो गया । सन् 1813 के इस आज्ञापत्र में हाउस ऑफ कॉमन्स ने साहित्य के पुनरुद्धार व सुधार , भारतीय विद्वानों के प्रोत्साहन तया भारत में विज्ञान शिक्षा के प्रारम्भ ब संवर्धन हेतु अलग से धनराशि की व्यवस्था की गई थी ।
ईस्ट इंडिया कम्पनी के प्रारम्भिक शैक्षिक प्रयास ( Early Educational Efforts of East India Company )
सन् 1600 में अपनी स्थापना के उपरान्त लगभग प्रथम 150 वर्षों तक ईस्ट इंडिया कम्पनी का मुख्य उद्देश्य व्यापार करना था । परंतु यूरोप की अन्य व्यापारिक कम्पनियों के समान उसे भी थोड़ा बहुत ईसाई धर्म व संस्कृति का प्रचार करना पड़ा था । सन् 1757 में प्लासी के युद्ध में लार्ड क्लाइव की विजय तथा सन् 1765 में बंगाल , विहार व उड़ीसा की दीवानी प्राप्त करने के उपरान्त भारत के काफी बड़े भूभाग पर कम्पनी का अधिकार हो गया जिसके फलस्वरूप कम्पनी ने राजनीतिक रूप धारण कर लिया । अपनी राजनीतिक सत्ता को स्थाई बनाने के लिए कम्पनी का ध्यान भारतीयों की शिक्षा के प्रति आकर्षित हुआ ।
भारत आने वाले प्रयम योरोपियन पुर्तगाली ये तथा पुर्तगाली मिश्नरियों ने रोमन कैथौलिक धर्म का खूब प्रचार किया । पुर्तगालियों के प्रभाव को कम करने के लिए ब्रिटिश ईस्ट इण्डिया कम्पनी ने इंग्लैंड के प्रोटेस्टेंट पादरियों को भारत बुलाया जिससे कम्पनी के कर्मचारियों में अपने धर्म के प्रति लगाव बना रहे तथा भारतीयों में प्रोटेस्टेंट मत का प्रचार हो सकें । इस कार्य के लिए कम्पनी ने मिश्नरियों को शिक्षा संस्थाएं खोलने के लिए प्रोत्साहित भी किया । यह ईस्ट इण्डिया कम्पनी की भारतीय शिक्षा नीति का श्रीगणेश था । अपनी व्यापारिक तथा राजकीय आवश्यकता को ध्यान में रखते हुए कम्पनी ने अनेक शिक्षा संस्थाओं की स्थापना की । अपने कर्मचारियों के बयों को निःशुल्क प्राथमिक शिक्षा देने के लिए कम्पनी ने अनेक धर्मार्थ विद्यालयों ( Charity Schools ) की स्थापना की । इन विद्यालयों में यद्यों को लिखने - पढ़ने , गणित तथा ईसाई धर्म की शिक्षा दी जाती थी । सन् 1871 में प्रथम गनर जनरल वारेन हेस्टिंग्स ( Warren Hastings ) के द्वारा कलकत्ता मदरसा , सन् 1791 में जोनाथन ईकन ( Jonathan Duncan ) के प्रयासों के फलस्वरूप बनारस संस्कृत कॉलेज तथा सन् 1800 में तत्कालीन गर्वनर जनरल लॉर्ड वेलेस्ली ( Lord wellesley ) के द्वारा कलकत्ता में फोर्ट विलियम कालेज की स्थापना की गई । कलकता मदरसे की स्थापना का उद्देश्य इस्लाम धर्म तथा मुस्लिम कानूनों की शिक्षा देकर अंग्रेज न्यायाधीशों के लिए मुस्लिम सलाहकार तैयार करना था । इसी प्रकार बनारस संस्कृत कालेज की स्थापना का उद्देश्य मनुस्मृति पर आधारित हिन्दू कानूनों की शिक्षा देकर अंग्रेज न्यायाधीशों के विशेषज्ञ हिन्दू सलाहकार तैयार करना था । फोर्ट विलियम करने के लिए की गई थी । कालेज की स्थापना अंग्रेजों की भारतीय भाषाओं , इतिहास तथा हिन्दू व मुस्लिम कानूनों की शिक्षा प्रदान ।
सन् 1821 में पूना के रेजीडेन्ट एल्फिन्स्टन ( Elphinstone ) ने पेशवा के दक्षिणा कोष की सहायता से पूना संस्कृत कालेज की स्थापना की । एल्फिन्स्टन का इस कालेज को खोलने का मुख्य उद्देश्य दक्षिण के ब्राह्मणों को सन्तुष्ट करना था ।
सन् 1813 का आज्ञा - पत्र ( Charter Act of 1813 )
सन् 1813 में शिक्षा के प्रति कम्पनी के उत्तरदायित्वों को निश्चित करने की दिशा में । निश्चित कदम उठाया गया था । उक्त वर्ष में ब्रिटिश संसद ने कम्पनी को भारत पर शासन करने सम्बन्धी आज्ञापत्र का नवीनीकरण किया गया तथा अधिनियम ( Charter Act of 1813 ) की धारा 43 में प्राविधान किया एक गया कि कम्पनी द्वारा-
" प्रतिवर्ष कम से कम एक साख रुपये भारत के विद्वान निवासियों के उत्साहवर्धन एवं साहित्य के पुनरुत्थान य विकास के लिए तथा ब्रिटिश भारत की सीमाओं के अन्दर निवास करने वालों में विज्ञान सम्बन्धी ज्ञान के प्रारम्भ व प्रवर्धन हेतु पृथक से व्यय किये जायें । "
" It shall be lawful for the Governor General in Council to direct that sum of not less than one lac of rupees in each year shall be set apart and applied to the revival and improvement of literature and the encouragement of the learned natives of India and for the introduction and promotion of a knowledge of the sciences among the inhabitants of the British territories of India . "
सन् 1813 के आज्ञापत्र ( Charter ) के इस प्राविधान का भारतीय शिक्षा के इतिहास में अत्यन्त महत्वपूर्ण स्थान है । वस्तुतः यह धारा चार्जा प्राण्ट तथा बित्यरफोर्स द्वारा अनेक वर्षों तक निरन्तर चलाये आन्दोलन की विजयश्री का परिणाम थी । इसने भारतीयों की शिक्षा के प्रति ईस्ट इण्डिया कम्पनी के उत्तरदायित्व को निश्चित कर दिया जिसके फलस्वरूप भारतीय शिक्षा को एक नवीन दिशा मिली ।
भारतीयों को लगा कि इस धारा के जुड़ जाने के फलस्वरूप उनकी शिक्षा की उचित व्यवस्था हो सकेगी । परन्तु उनकी आशाओं पर तुषारापात हो गया क्योंकि आज्ञापत्र में एक लाख रुपये की धनराशि को व्यय करने का ढंग तथा साहित्य शब्द के अर्थ को स्पष्ट नहीं किया गया था जिसके कारण कम्पनी के संचालकों में विवाद उत्पन्न हो गया । इसके परिणामस्वरूप सन् 1813 से सन् 1833 की अवधि के दौरान भारत में कोई विशेष शैक्षिक प्रगति न हो सकी ।
राजाज्ञा अधिनियम की इस धारा ने कम्पनी को भारतीयों की शिक्षा में दिलचस्पी लेने के लिए बाध्य कर दिया । इसीलिये राजाज्ञा अधिनियम , 1813 को भारत में ब्रिटिश शिक्षा पद्धति का शिलालेख ( Foundation Stone of British Education in India ) भी कहा जाता है ।
प्राच्य - पाश्चात्य शिक्षा विवाद ( Oriental - accidental Education Controversy )
सन् 1813 के आज्ञापत्र में शिक्षा की प्रकृति , पाठ्यवस्तु या माध्यम के सम्बन्ध में कोई उल्लेख नहीं था । दरअसल इस आज्ञा पत्र में जोड़ी गई धारा 43 में साहित्य के पुनरुद्धार व विकास ' , ' भारत के विद्वान नागरिकों के उत्साहवर्द्धन ' तथा ' विज्ञान सम्बन्धी ज्ञान के प्रारम्भ व प्रबद्धन जैसे , शब्दों का अर्थ तथा इन उद्देश्यों को प्राप्त करने के ढंग को स्पष्ट नहीं किया गया था । धारा 43 की इस अस्पष्टता ने भारत में प्राच्य , पाश्चात्य , शैक्षिक विवाद को उग्र रूप प्रदान किया । प्राच्य शिक्षायादी का कहना था कि साहित्य शब्द से तात्पर्य संस्कृत और अरबी भाषा के साहित्य से है तथा भारतीय विद्वान से अर्थ इन दोनों भाषाओं में से किसी एक विद्वान से है । परन्तु इसके विपरीत पाश्चात्यवादियों का विचार या कि साहित्य तथा भारतीय विद्वान शब्द को इतने संकीर्ण अर्थ में नहीं देखना चाहिए तथा साहित्य में अंग्रेजी साहित्य का प्रमुख स्थान है । प्राच्यवादियों का दल भारत के प्राचीन साहित्य , सभ्यता तथा संस्कृति के प्रचार पक्ष में या तथा चाहता था कि पाश्चात्य दर्शन व विज्ञान की शिक्षा भी संस्कृत व अरबी माध्यम से दी जाये । ईस्ट इंडिया कम्पनी की प्रारम्भिक शैक्षिक नीति भी प्राध्य शिक्षा को प्रोत्साहित करने की थी तथा इस नीति के तहत ही कलकत्ता मदरसा तथा बनारस संस्कृत कॉलेज की स्थापना की गई थी जिनमें क्रमशः अरबी - फारसी तथा संस्कृत के माध्यम से शिक्षा दी जाती थी । परन्तु पाश्चात्यवादी अंग्रेजी माध्यम से यूरोपीय साहित्य तथा विज्ञान की शिक्षा देने के पक्षधर थे जिसकी वजह से शिक्षा के लिए निर्धारित धनराशि खर्च नहीं की जा सकी । तब सन् 1823 में जनशिक्षा की सामान्य समिति ( General Committee of Public Instruction ) का गठन किया गया तथा शिक्षा के लिए निर्धारित धनराशि खर्च करने का दायित्व इस समिति को सौंप दिया गया । इस समिति के कुछ सदस्य प्रचलित भारतीय शिक्षा के पक्ष में थे तथा कुछ सदस्य पाश्चात्य शिक्षा के पक्ष में थे जिससे राजनैतिक क्षेत्रों में प्राच्य - पाश्चात्य शिक्षा विवाद ( Oriental - Occidental Education Controversy ) उठ खड़ा हुआ ।
प्राच्यवादी नीति के समर्थक उथ कोटि के कूटनीतिज्ञ थे । उनका विचार था कि भारतवासियों की विभाजित करके ही उन पर शासन किया जा सकता है । ये अरबी , फारसी तथा संस्कृत पर आधारित शिक्षा व्यवस्था करके भारतीयों को विभिन्न धर्मों तथा जातियों में विभक्त रखना चाहते थे । इसके अतिरिक्त प्राचीन भारतीय शिक्षा के समर्थकों का कहना था कि भारतीय पाश्चात्य शिक्षा के योग्य नहीं हैं तया यदि उन्हें शिक्षा दी गई तो वे अंग्रेजों के समका हो जायेंगे । प्राच्यवादियों ने भारतीयों को अंग्रेजी माध्यन में पाश्चात्य साहित्य की शिक्षा देने का विरोध करते हुए तीन तर्क प्रस्तुत किये । प्रथम , पाश्चात्य ज्ञान तथा साहित्य के प्रसार से भारत की प्राचीन सभ्यता तथा संस्कृति का लोप हो जायेगा । द्वितीय , अंग्रेजी शिक्षा के प्रोत्साहन से सदियों से संचित भारतीय साहित्य नष्ट हो जायेगा । तृतीय ,, किसी भी देश के नागरिकों को अन्य देश की भाषा तथा साहित्य का ज्ञान प्राप्त करने के लिए विवश करना गलत है । इन तको आधार पर प्राच्यवादियों ने प्राचीन भारतीय , साहित्य , संस्कृति तथा शिक्षा प्रणाली को सुरक्षित रखने की आवश्यकता पर जोर दिया तथा कहा कि भारतीयों की प्राधीन शिक्षा प्रणाली को प्रोत्साहित करने के लिए संस्कृत , अरबी व फारसी के माध्यम वाली प्राचीन शिक्षा की व्यवस्था की जानी चाहिए ।
इसके विपरीत पाश्चात्यवादियों ने प्राच्यवादियों के मत का जमकर विरोध किया । उनके दल में ईस्ट इन्डिया कम्पनी के नवयुवक कर्मचारी ईसाई पादरी तथा राजा राममोहन राय जैसे अनेक भारतीय भी सम्मिलित थे । इनका विचार या कि प्राचीन शिक्षा प्रणाली मरणासन्न हो चुकी है तथा उसे पुनर्जीवन प्रदान करना सम्भव नहीं है । उनका मानना था कि अरबी , फारसी तथा संस्कृत का साहित्य पुरातन व निरर्थक विधारों से भरा पड़ा है जो अब उपयोगी नहीं है । इसलिए भारतीयों का शैक्षिक विकास करने के लिए उन्हें अंग्रेजी के माध्यम से पाश्चात्य साहित्य तथा विज्ञान से अवगत कराना अत्यन्त आवश्यक है । इनके अतिरिक्त पाश्चात्य शिक्षा के पक्षधरों का यह भी मत था कि पाश्चात्य शिक्षा भारतीयों को पश्चिमी विचारधारा में रंग देगी जिससे भारत में अंग्रेजी राज्य की जड़ों को सहारा मिलेगा । अतः पाश्चात्य प्रकार की शिक्षा अंग्रेजी माध्यम से दी जानी चाहिए । यहाँ पर यह इंगित करना भी उचित ही होगा कि पाश्चात्यवादियों के द्वारा भारत में यूरोपीय ज्ञान तथा विज्ञान की अंग्रेजी माध्यम से शिक्षा देने का समर्थन करना उनकी किसी निःस्वार्थ भावना अथवा भारतीयों की कल्याणकामना से प्रेरित नहीं था वरन् अपने स्वार्थ व स्वहित की भावना से ही प्रेरित था । अपने व्यापारिक तथा शासकीय कार्यालयों के लिए उन्हें अंग्रेजी जानने वाले तथा पाश्चात्य संस्कृति से युक्त बाबुओं की आवश्यकता थी क्योंकि उनके देशवासियों का बड़ी संख्या में यहाँ आना सम्भव नहीं था । इस परिस्थिति में उन्होंने यही उचित समझा कि भारत में पाश्चात्य शिक्षा का प्रसार करके अंग्रेजी विचारों से युक्त बायुओं को तैयार किया जा सके । संदर्भ हेतु यह भी इंगित करना उचित ही होगा कि प्राच्य तथा पाश्चात्य शिक्षा के पक्षधरों के अतिरिक्त एक तीसरा दल या जिसे लोकभाषायादी ( Vernacularist ) कहा जाता है । इस दल के सदस्य भारत में पाश्चात्य ज्ञान - विज्ञान की शिक्षा का प्रसार तो चाहते थे परन्तु एक माध्यम के रूप में प्रान्तीय भाषाओं का प्रयोग करने को उचित समझते थे । परन्तु वह दल अधिक प्रभावशाली नहीं था । लोक जनशिक्षा की सामान्य समिति के सदस्यों में मतभेद होने के कारण कोई व्यावहारिक कदम नहीं उठाया जा सका । सन् 1833 में कम्पनी के भारत में शासन करने सम्बन्धी आज्ञापत्र का पुनः नवीनीकरण हुआ , जिसमें शिक्षा के लिए निर्धारित राशि को एक लाख से बढ़ाकर दस लाख कर दिया गया । इस आज्ञापत्र में ईसाई मिशनरियों को भारत में बेरोकटोक प्रवेश की अनुमति भी दी गई तथा गवर्नर जनरल की कौसिल में एक विधि सदस्य ( Law Member ) बढ़ा दिया गया ।
प्राव्यवादियों तथा पाश्चात्यवादियों के बीच संघर्ष सन् 1834 तक निरन्तर चलता रहा तथा कोई निर्णय न हो सका , किसी निर्णायक व्याख्या के अभाव में विभिन्न प्रान्तों के अधिकारीगण अपने - अपने विचारों के अनुरूप धारा 43 की व्याख्या करते रहे तथा तदनुसार शिक्षा नीति बना ली । विभिन्न प्रान्तों की शिक्षा नीतियों में विभिन्नता तथा शिक्षा प्रेमियों के बीच शिक्षा सम्बन्धी विचारों के संघर्ष का परिणाम यह निकला कि सन् 1813 में शिक्षा के लिए आर्थिक उत्तरदायित्व निश्चित हो जाने के बावजूद शिक्षा की प्रगति लगभग नगण्य ही बनी रही । इस स्थिति को देखकर शिक्षा योजनाओं के संचालन हेतु सन् 1823 में जनशिक्षा की समिति ( Committee of Public Instruction ) का गठन तत्कालीन गर्वनर जनरल के द्वारा किया गया । इस समिति में इस सदस्य थे तथा इसके मन्त्री मि ० विल्सन थे । इस समिति में प्राध्यवादियों का बहुमत होने के कारण संस्कृत , अबी तथा फारसी की शिक्षा को प्रोत्साहन दिया जाने लगा परन्तु पाश्चात्यवादियों को यह सब पसन्द नहीं था तथा ये समिति की नीतियों व कार्यों का निरन्तर विरोध करते रहे । धीरे - धीरे प्राव्य - पाश्चात्यवादियों के विवाद ने उग्ररूप धारण कर लिया । समिति के सदस्यों में गारा मतभेत हो जाने के फलस्वरूप समिति के मन्त्री ने इस विवाद की समाप्ति हेतु इसे जनवरी 1835 में भारत के तत्कालीन गवर्नर जनरल लार्ड विलियम बैंटिक के समक्ष रखा तया उनसे नीति निर्धारण सम्बन्धी निर्णय देने का अनुरोध किया । लाई बैंटिक ने गवर्नर जनरल की कौंसिल के विधि सदस्य लार्ड मैकाले को जनशिक्षा समिति का सभापति नियुक्त कर दिया तथा उससे सन् 1813 के आज्ञापत्र की धारा 43 के विवाद ग्रस्त विन्दुओ पर कानूनी सलाह देने का निर्देश दिया ।
मैकाले का विवरण पत्र ( Macauley's Minutes )
समिति सन् 1834 में गवर्नर जनरल की कार्यकारिणी ( Governor General'sExecutive Councily के प्रथम विधि सदस्य ( Law member ) के रूप में लार्ड टी ० बी ० मैकाले भारत आया । मैकाले को जनशिक्षा की समिति ( General Committee on Public Institution ) का अध्यक्ष ( President ) भी बनाया गया तथा उससे चार्टर एक्ट , 1813 की धारा 43 के निहितार्थ के सम्बन्ध में परामर्श मांगा गया । तब मैकाले ने सन् 1835 में पाश्चात्य शिक्षा के पक्ष में अपना निर्णय दिया । लार्ड मैकाले ने प्राध्यवादियों तथा पाश्चात्यवादी दोनों के विचारों को सुना तथा आज्ञापत्र की धारा 43 का सूक्ष्म अध्ययन किया । उसने अपनी तर्कपूर्ण ढंग से बलवती भाषा में अपनी सलाह को 2 फरवरी 1835 को लार्ड बैटिक के पास भेज दिया । लाई मैकाले के द्वारा गवर्नर जनरल की दी गई इस सलाह को ही मैकाले का विवरण पत्र ( Macauley's Minutes ) कहा जाता है । मैकाले ने अपने विवरण पत्र में सन् 1813 के आज्ञापन की धारा 43 की व्याख्या निम ढंग से की
1 . एक लाख रुपये की धनराशि शिक्षा के संवर्धन हेतु किस प्रकार से व्यय करनी है , इस सम्बन्ध में गवर्नर जनरल पूर्ण स्वतंत्र हैं ।
2 . ' साहित्य ' शब्द से तात्पर्य अरबी - फारसी तथा संस्कृत के साहित्य से ही नहीं है वरन् अंग्रेजी साहित्य को भी इसमें सम्मिलित किया जाना चाहिए ।
3 . भारतीयों की शिक्षा का माध्यम उनकी मातृभाषा नहीं हो सकती है । भारतीय भी अंग्रेजी भाषा पढ़ने के इच्छुक है ।
4. भारतीय विद्वान से तात्पर्य मुस्लिम मौलवी तथा संस्कृत के पंडित के अलावा अंग्रेजी भाषा व साहित्य के विद्वान से भी है ।
वस्तुतः सार्ड मैकाले ने अपने विवरण पत्र में प्राच्य भारतीय शिक्षा व साहित्य का जोरदार ढंग से खंडन किया तथा अंग्रेजी माध्यम से पाश्चात्य ज्ञान व विज्ञान की शिक्षा की प्रथल अनुशंसा की । अपने इन विचारों के पक्ष में उसने अनेक तर्क दिए । संस्कृत , अरथी तया फारसी भाषा के साहित्य को गाँस निष्कृष्ट व वैज्ञानिक ज्ञान से विहीन तथा फ्रेंच ब अंग्रेजी भाषा के साहित्य को उससे उत्कृष्ट बताते उसने कहा कि ' एक अच्छे यूरोपीय पुस्तकालय की एक अलमारी का साहित्य भारत व अरब के सम्पूर्ण साहित्य के समान महत्व रखता है । "
" A single shelf of a good European library was worth the whole native literature of India and Arabia . "
शिक्षा के माध्यम के रूप में भारतीय भाषाओं के स्थान पर अंग्रेजी का पक्ष लेते हुए लार्ड मैकाले ने अपने विवरण पत्र में कहा कि
" भारत में अंग्रेजी सत्ताधारियों द्वारा बोली जाने वाली भाषा है । यह सरकारी पदों पर बैठे उच्चवर्ग के भारतीयों के द्वारा बोली जाती है । यह समस्त पूर्वी क्षेत्रों में व्यापार की भाषा बनने वाली है । अंग्रेजी भाषा हमारी भारतीय प्रजा के लिए सर्वाधिक उपयोगी हैं । "
" In India . English is the language spoken by the ruling class . It is spoken by the higher class of natives at the seats of Government . It is likely to become the language of Commerce throughout the seas of the East --- the English tongue is that which would be the most useful to our native subjects .
" संस्कृत तथा अरवी भाषा में लिखे धार्मिक साहित्य के संरक्षण व प्रोत्साहन की नीति का खंडन करते हुए उसने कहा कि "
यह कहा जाता है कि संस्कृत भाषा तथा अरबी वे भाषाएँ हैं जिनमें सैकड़ों लाखों लोगों के पवित्र ग्रन्थ लिखे गये हैं तथा इसीलिए इन भाषाओं को प्रोत्साहन देने की जरूरत है । भारत में ब्रिटिश शासन का यह कर्तव्य है कि वह न केवल सहनशील वरन् सभी धार्मिक प्रश्नों के प्रति उदासीन रहे । "
" lt is said that Sanskrit and Arabic are the languages in which the sacred books of a hundred millions of people are written and that they are on that account , entitled to peculiar encouragement . Assuredly it is duty of the British Government in India to be not only tolerant but neutral on all questions . "
अपने विवरण पत्र में प्रश्नगत बिभिन्न बिन्दुओं की विस्तृत तार्किक बिबेचना करने के उपरान्त अंत में उसने कहा कि मेरे विचार में यह स्पष्ट है
1 . कि हम पार्लियामेन्ट के 1813 के अधिनियम से बाधित नहीं है ।
2 . कि हम लोग किसी अभिव्यक्त या अन्तर्निहित शपथ से बाधित नहीं हैं ।
3 . कि हम अपने कोश का प्रयोग इच्छानुसार करने के लिए स्वतंत्र हैं ।
4 . कि हमें इसको सर्वोत्तम ज्ञान का शिक्षण देने में लगना चाहिए ।
5 . कि अंग्रेजी का ज्ञान संस्कृत अथवा अरबी भाषा से अधिक उपयोगी है ।
6 . कि भारतीय अंग्रेजी पढ़ने के इच्छुक है न कि संस्कृत अथवा अरयी ।
7 . कि न तो कानून की भाषा तथा न ही धर्म की भाषा के रूप में संस्कृत तया अरबी हमारे प्रोत्साहन के योग्य है ।
8 . कि इस देश के निवासियों को उत्तम अंग्रेज विद्वान बनाना सम्भव है , एवं
9 . कि इस दिशा में हमें प्रयास करने चाहिए ।
To sum what I have said , I think it is clear
1 . that we are not fettered by the Act Parliament of 1813 ,
2 . that we are not fettered by any pledge expressed or implied ,
3 . that we are free to employ our funds as we choose .
4 . that we ought to employ them in teaching what is best worth knowing . ,
5..that English is better worth knowing than Sanskrit or Arabic .
6. that the natives are desirous to be taught English and are not desirous to be taught Sanskrit or Arabic . that neither as languages of law nor as languages of religion , have the Sanskrit
7 . and the Arabic any peculiar claim to our encouragement , that it is possible to make natives of this country thoroughly good English
8 . scholars , and that to this end our efforts ought to be directed . "
स्पार है कि साई मैकाले ने अपने विवरण पत्र ( Macauley's Minutes of 1835 ) में कहा कि भारत में शिक्षा का उद्देश्य अंग्रेजी माध्यम से पूरोपीय साहित्य तथा विज्ञान का प्रचार करना है । अपने विचारों के क्रियान्वयन के लिए उसने केवल उस वर्ग की शिक्षा का प्रस्ताव किया । उप वर्ग की शिक्षा का समर्थन करते हुए मैकाले ने तर्क दिया कि
" अपने सीमित साधनों में हमारे लिए यह असम्भव है कि जनसामान्य को शिक्षा देने का प्रयास करें । वर्तमान में हमें अपने प्रयास एक ऐसे वर्ग को बनाने में करना चाहिए जो हमारे तथा हमारे द्वारा शासित लाखों लोगों के बीच दुभाषियों का काम कर सकें तथा जो रंग व रूप में भारतीय हो परनु रुथि , विचार , आदर्श तथा बुद्धि में अंग्रेज हो । इस वर्ग पर हम देशी भाषाओं को परिष्कृत करने तथा पाश्चात्य शब्दावली के वैज्ञानिक पदों से संबंधित करने एवम् विशाल जनसंख्या तक शान पहुंचाने का कार्य छोड़ देंगे । "
" It is impossible for us , with our limited means , to attempt to educate the body of the people . We must at present do our best of form a class who may be interpreters between us and the millions whom we govern , a class of persons , Indian in blood and colour , but English in taste , in opinions , in morals , and in intellect . To that class we may leave it to refine the vernacular dialects to the country , to enrich those dialects with terms of science borrowed from the western nomenclature , and to render them by degrees fit vehicles for conveying knowledge to the great mass of the population . "
इस प्रकार अंग्रेजों की प्रारम्भिक शिक्षा नीति प्रकाश में आई जिसमें अंग्रेजी के माध्यम से समाज के संप्रान्त वर्ग को शिक्षित करके समाज के निम वर्ग तक शिक्षा के छन - छन कर स्वतः पहुंचने की संकल्पना की गई थी जो ब्रिटिश शासन के पूरे काल बनी रही थी । लार्ड मैकाले के द्वारा प्रस्तुत शिक्षा प्रसार की Theory ) के नाम गे सम्बोधित किया जाता है ।
अयोगामी निस्पन्दन सिद्धान्
( Downward Filteration Theory )
शिक्षा के क्षेत्र में प्राच्य पाश्चात्य विवाद के साथ साथ इसी काल में जनशिक्षा ब उम शिक्षा के बीच संघर्ष भी चलता रहा । भारत में शिक्षा के विस्तार के सम्बन्ध में एक बड़ा प्रश्न यह भी था कि जनसाधारण से शिक्षित किया जाये अथवा किसी वर्ग विशेष को उच्च शिक्षित किया जाये । व्यापारियों की कम्पनी होने के कारण ईस्ट इंडिया कम्पनी भारतीयों की शिक्षा पर कम से कम धन व्यय करना चाहती थी । लाई मैकाले जन साधारण की शिक्षा के पक्ष में नहीं था तथा केवल उच्च वर्ग के सन्यत्र लोगों को शिक्षा प्रदान करना चाहता था । उसने यह सिद्धान्त प्रतिपादित किया कि शिक्षा की व्यवस्था केवल उय वर्ग के चुने हुए व्यक्तियों के लिए की जाये , जहाँ से वह स्वतः ही धीरे - धीरे छन कर निम्न बर्ग तक पहुँच जायेगी । इस सिद्धान्त को अधोगामी निस्यन्दन सिद्धान्त अथवा निम्नवत् छन्नीकरण का सिद्धान्त ( Downword Filteration Theory ) कहा जाता है । निस्पन्दन या छनाई से तात्पर्य किसी द्रव का छन छन कर नीचे की ओर जाने से है । शिक्षा के क्षेत्र में निस्यन्दन या छनाई से अभिप्राय समाज के उय वर्ग को दी गई शिक्षा का कालान्तर में निम्न वर्ग तक पहुंचने से है । दरअसल निस्यन्दन सिद्धान्त के समर्थकों का विश्वास । कि समाज का निम्न वर्ग प्रत्येक क्षेत्र में समाज के उस वर्ग के व्यवहार का अनुसरण करता है अतः यदि समाज के उग्र वर्ग को अंग्रेजी साहित्य , विज्ञान तथा रीति - रिवाजों में शिक्षित कर दिया जाये तो कालान्तर में उनके आचरण तथा व्यवहार का अनुसरण करके निम्न वर्ग इसी प्रकार की शिक्षा के प्रकाश से आलोकित हो जायेगा । बम्बई के गवर्नर की काउंसिल के सदस्य फ्रांसिस बार्डन ने 1823 में इस सिद्धान्त का समर्थन करते हुए विचार व्यक्त किया कि बहुत से व्यक्तियों को थोड़ा सा ज्ञान देने की अपेक्षा थोड़े से व्यक्तियों को बहुत सा ज्ञान देना अधिक उत्तम तथा निरापद कार्य होगा । सन् 1830 में अपने एक परिपत्र में कम्पनी के संचालकों ने इस सिद्धान्त का समर्थन यह कहते हुए किया कि शिक्षा की प्रगति तब ही सम्भव है जब उस वर्ग के उन लोगों को शिक्षा दी जाये जिनके पास अवकाश है और जिनका अपने देश के निवासियों पर प्रभाव है । ईसाई मिशनरियों ने भी इस सिद्धान्त का समर्थन यह कहते हुए किया कि यदि भारत के उच्च वर्ग के हिन्दुओं को अंग्रेजी शिक्षा देकर ईसाई धर्म का अनुयायी बना लिया जाये तब निम्नवर्ग के व्यक्ति उनके उदाहरण से प्रभावित होकर स्वयं ही ईसाई धर्म अपना लेंगे ।
लाई मैकाले के द्वारा शिक्षा के क्षेत्र में अधोगामी निस्पंदन के इस सिद्धान्त ( Downward Filteration / Theory ) को प्रतिपादित करने के निम्नांकित कारण प्रतीत होते हैं
1. ईस्ट इन्डिया कम्पनी के पास भारत की विशाल जनसंख्या वाले जनसाधारण वर्ग को शिक्षा प्रदान करने के लिए आवश्यक धन नहीं था ।
2 . उच्च वर्ग को शिक्षित करके उन्हें कालान्तर में जनसाधारण को शिक्षा देने का उत्तरदायित्व दिया जा सकता है
3 . अंग्रेजों को ऐसे उस शिक्षित व्यक्तियों की आवश्यकता थी जिन्हें विभिन्न पदों पर आसीन करके शासन को सुदृढ़ बनाया जा सके ।
4 . उच्च वर्ग को विज्ञान , अंग्रेजी एवं पाश्चात्य आचार - विचारों की शिक्षा देकर जनसाधारण को प्रभावित किया जा सकता है ।
निस्पंदन के सिद्धान्त ने भारतीय शिक्षा को एक निश्चित दिशा प्रदान की देश में अंग्रेजी की उच्च शिक्षा की प्रगति तेज हो गई परन्तु जिस उद्देश्य से इस सिद्धान्त को अपनाया गया था उसमें अपेक्षित सफलता नहीं मिली । शिक्षा का ज्ञान उच्च वर्ग से छन - छन कर जनसाधारण तक नहीं पहुँच सका । इसका मुख्य कारण उप शिक्षित व्यक्तियों का एक पृथक् वर्ग बन जाना था जो जनसाधारण से सम्पर्क रखना नहीं चाहते थे । वस्तुतः शिक्षा प्राप्त करने के बाद सरकारी नौकरियां मिल जाती थी तथा उनके विचारों , आदर्श तथा मान्यताओं में परिवर्तन आ जाता था । वे अपने को अन्यों से श्रेष्ठ मानने लगते थे । सरकारी , टुकड़ों पर पलने वाले इस वर्ग के व्यक्तियों ने अपने ही निर्धन देशवासियों से सम्बन्ध - विच्छेद कर लिया तथा वे कालान्तर में उनका शोषण करने लगे ।
मार्च 1835 का आदेश पत्र ( Resolution of March 1835 )
मार्च 1835 का आदेशपत्र भारतीय शिक्षा के क्षेत्र में प्रथम नीतिगत घोषणा थी । तत्कालीन गवर्नर जनरल लार्ड विलियम बैन्टिक ने 7 मार्च 1835 को मैकाले के विचारों का स्वागत करते हुए मैकाले विवरण पत्र में प्रस्तावित शिक्षा नीति को अपनी स्वीकृति दे दी ।
लार्ड वैन्टिक ने अपने चार सूत्री आदेश ( Resolution ) में ईस्ट इण्डिया कम्पनी की शिक्षा नीति की घोषणा करते हुए कहा कि
( 1 ) ब्रिटिश सरकार का उद्देश्य भारत के निवासियों में योरोपियन साहित्य तथा विज्ञान को बढ़ावा देना है तथा शिक्षा के लिए निर्धारित समस्त धनराशि को अंग्रेजी शिक्षा पर व्यय करना ठीक होगा ।
( 2 ) परन्तु कौसिल का मन्तव्य देशी शिक्षा के किसी कालिज पा स्कूल को समाप्त करने का नहीं है ।
( 3 ) प्राचीन कार्यों के मुद्रण पर भविष्य में कोई धन व्यय नहीं किया जाये ।
( 4 ) समस्त अवशेष धन यहाँ के निवासियों को अंग्रेजी भाषा तथा विज्ञान की शिक्षा अंग्रेजी माध्यम से देने में व्यय किया जाये ।
( 1 ) The great object of the British Government ought to be the promotion of European literature and science among natives of India and that all funds appropriated for purpose of education would be best employed on English education alone .
( 2 ) But it is not the intention of his lordship in Council to abolish any college or school of native learning .
( 3 ) No portion of the funds shall there be employed on the printing of oriental works ,
( 4 ) All the funds which leave at the disposal of the committee be hence forth employed in imparting on the native population a knowledge of English literature and science through the medium of English language .
लार्ड विलियम बैन्टिक के द्वारा जारी किये गये इस आदेशपत्र ने भारत में शिक्षा के उद्देश्य , विषयवस्तु तथा शिक्षण माध्यम का निर्धारण किया । भारत में पाश्चात्य विज्ञान तथा साहित्य के प्रचार - प्रसार का प्रारम्भ वस्तुतः इस आदेशपत्र के क्रियान्वयन की परिणति ही थी ।
ऐडम आख्या ( Adam's Report )
एक धर्म प्रचारक के रूप में ऐडम सन् 1818 में भारत आया था । यहाँ आने के उपरान्त बह राजा राममोहन राय के सम्पर्क में आया तथा उसने संस्कृत व बंगाली भाषाओं का विशद् अध्ययन किया । इस सबके परिणामस्वरूप उसने भारत में शिक्षा व्यवस्था के सम्बन्ध में रुचि लेना प्रारम्भ कर दिया एवं पहले सन् 1829 में एवं पुनः सन् 1834 में बंगाल प्रान्त में देशी शिक्षा व्यवस्था की जाँच कराने का अनुरोध गवर्नर जनरल से किया । गवर्नर जनरल ने तब रु . 1000-00 प्रति माह के वेतन या बंगाल में शैक्षिक सर्वेक्षण हेतु ऐडम को नियुक्त कर लिया । ऐडम ने 1835 , 1836 4 1838 में एक - एक करके अपनी तीन आख्यायें ( Report ) गर्वनर जनरल के समक्ष प्रस्तुत की थी । ऐडम के सर्वेक्षण के अनुसार बंगाल में 4 करोड़ की आबादी थी एवं स्कूलों की संख्या एक लाख थी । इस सर्वेक्षण के अनुसार प्रत्येक 400 व्यक्तियों के सापेक्ष एक स्कूल था । यह आंकड़े आज की परिस्थिति में व्यावहारिक रूप से अविश्वसनीय तथा काल्पिक प्रतीत होते हैं परन्तु वास्तव में स्कूलों की संख्या में पारिवारिक स्कूल भी सम्मिलित किये गये प्रतीत होते हैं । ऐडम ने जनशिक्षा का समर्थन एवं निम्नवत छन्नीकरण के सिद्धान्त का विरोध किया । उसके अनुसार जैसे इमारत को दृढ़ बनाने के लिए उसकी नीव को सुदृढ़ करना आवश्यक है ठीक उसी प्रकार शिक्षा की प्रक्रिया नीचे से ऊपर की ओर जाती है । उसने भारत की देशी शिक्षा व्यवस्था की वकालत करते हुए उसे उपयोगी माना एवं उसमें सुधार करने की संस्तुति की । उसने भारतीय भाषाओं में पाठ्यपुस्तकों के प्रकाशन , देशी स्कूलों के अध्यापकों को प्रशिक्षण देने व वेतन वृद्धि करने , कृषि शिक्षा को प्रोत्साहित करने , मातृभाषा को शिक्षा का माध्यम बनाने एवं देशी विद्यालयों के लिए निरीक्षण व्यवस्था करने जैसे अनेक अहम् संस्तुतियाँ अपनी आख्याओं में की । राष्ट्रीय शिक्षा के विकास की कड़ी में ऐडम की शिक्षा योजना एक महत्वपूर्ण प्रयास था परन्तु इस योजना को लाई आकलैण्ड ने स्वीकार नहीं किया एवं भारतीय शिक्षा में सुधार का यह प्रयास सफल नहीं हो सका ।
लार्ड आकलैंड की नीति( Policy of Lord Auckland )
मैकाले के विवरण पत्र में घोषित शिक्षा नीति की लाई बैंटिक की स्वीकृति ने भारतीय शिक्षा को एक निश्चित दिशा तो प्रदान की परन्तु यह प्राच्य पाश्चात्य विवाद को समाप्त न कर सकी । उसके प्रकाशन के तेरहवें दिन ही लाई बैंटिक ने त्यागपत्र दे दिया तया लाई आकलैन्ड ( Lord Auckland ) को उसका उत्तराधिकारी बनाया गया । बैन्टिक के जाने के उपरान्त प्राध्यवादियों ने अपना आन्दोलन पुनः प्रारम्भ कर दिया । ये मैकाले के विवरण पत्र तथा वैन्टिक के आदेशपत्र से सन्तुष्ट नहीं थे । लार्ड आकलैन्ड ने स्थिति को अत्यन्त गम्भीर पाया । लगभग चार वर्षों तक उसने इस विवाद के कारणों का अध्ययन किया । यह इस निष्कर्ष पर पहुँचा कि इस विवाद का मूल कारण प्राच्य शिक्षा पर कम धन का व्यय किया जाना है तथा यदि प्राध्य शिक्षा पर कुछ धन अधिक व्यय किया जायेगा तब प्राच्यवादी सन्तुष्ट हो जायेंगे । इस विश्यास के अनुरूप उसने 24 नवम्बर 1839 को एक विवरण पत्र प्रकाशित किया जिसमें उसने प्राध्य शिक्षा के लिए इकतीस हजार रुपये वार्षिक की धनराशि स्वीकृत की । आकलैन्ड की इस घोषणा से प्राध्य शिक्षावादी सन्तुष्ट हो गये । इस प्रकार मैकाले के विवरण पत्र की स्वीकृति से उत्पन्न उपग्र विवाद को लाई आफलैन्ड ने सन् 1839 में अपने विवेकपूर्ण निर्णय अर्थात् प्राच्य शिक्षा को भी सन्तुलित व विवेक सम्मत प्रोत्साहन देने के आदेश से समाप्त कर दिया ।
लार्ड आकलैन्ट निस्यन्दन सिद्धान्त का समर्थक या । उसने अपने इस विवरण - पत्र में निस्यन्दन सिद्धान्त को शिक्षा की सरकारी नीति के रूप में स्वीकार करते हुए घोषणा की कि
" सरकार के प्रयास समाज के उच्च वर्गों में उस शिक्षा के प्रसार तक सीमित रहने चाहिए जिनके पास अध्ययन के लिए अवकाश है तथा जिनकी संस्कृति छनकर जनसाधारण तक पहुंचेगी । "
** Attempts of Goverment should be restricted to the extension of higher education to the upper classes of society who have leisure for study and whose culture would filter down to the masses . "
लार्ड आकलैन्ड की इस शिक्षा नीति के फलस्वरूप उच्च शिक्षा का तीब्र प्रसार हुआ परन्तु जनसाधारण की शिक्षा को एक बड़ा आघात पहुंचा ।
टामसन योजना ( Thompson Plan )
सन् 1835 में लार्ड मैकाले के विवरणपत्र को स्वीकार कर लेने के उपरान्त सरकारी प्रोत्साहन के फलस्वरूप देश के विभिन्न भागों में अंग्रेजी प्रकार की शिक्षा संस्थाओं की स्थापना तीव्रगति से होने लगी एवं देश के विभिन्न भागों में अनेक अंग्रेजी स्कूलों ने कार्य प्रारम्भ कर दिया । सन् 1843 में जेम्स टामसन को उत्तर पश्चिम आगरा प्रान्त का गर्वनर नियुक्त किया गया । जिसने जिलाधीशों से अपने अपने जिलों का शैक्षिक सर्वेक्षण कराया एवं उसके आधार पर शिक्षा के पुनर्गठन के लिए केन्द्र सरकार के समान एक प्रस्ताव प्रस्तुत किया । इस प्रस्ताव में उसने प्रत्येक 20 घरों वाले गांव / आबादी में एक स्कूल खोलने तथा अध्यापकों के वेतन के लिए जागीरों की व्यवस्था करने की संस्तुति की । केन्द्रीय सरकार ने स्कूल खोलने के प्रस्ताव को स्वीकार किया किन्तु जागीर देने के प्रस्ताव को अस्वीकार कर दिया । धन की कमी कारण टामसन की योजना सफल न हो सकी । परन्तु टामसन निराश न हुआ तथा उसने सन् 1948 में पुनः एक शिक्षा योजना प्रस्तुत की जिसमें देशी स्कूलों को प्रोत्साहित करना एवं प्रत्येक तहसील में एक - एक आदर्श स्कूल खोलना प्रमुख था । यह योजना केन्द्र द्वारा स्वीकार कर ली गई एवं उसे प्रारम्भ में 8 जिला. में लागू कर दिया गया । इस योजना के कार्यान्यवन ने आर - पश्चिम प्रदेश में शिक्षा के प्रचार प्रसार में महत्वपूर्ण योगदान किया जो कालान्तर में शैक्षिक विकास का आधार बना ।
वुड का घोषणापत्र ( Wood's Despatch )
सन् 1853 में जब कम्पनी के आज्ञापत्र के नवीनीकरण का पुनः अवसर आया तब ब्रिटेन के राजनैतिक क्षेत्रों में यह महसूस किया जाने लगा था कि भारतीय शिक्षा नीति में कुछ आमूल - चूल परिवर्तन किया जाना चाहिये । इसलिए ब्रिटिश संसद ने एक संसदीय समिति ( SelectCounmittee of the House of Commons ) की नियुक्ति की तथा इस समिति द्वारा प्रस्तुत कुछ आधारभूत सिद्धान्तों के आधार पर सन् 1854 में कम्पनी ने शिक्षा सम्बन्धी एक घोषणापत्र प्रस्तुत किया जिसे कम्पनी के संचालक मंडल ( Board of control , East India Company ) के अध्यक्ष सर चार्ल्स वुड ( Sir Charls Wond ) के नाम पर बुड का घोषणापत्र ( Wood's Despatch ) कहा जाता है । इस घोषणापत्र में तत्कालीन शिक्षा व्यवस्था के पुनरीक्षण तथा भविष्य में शैक्षिक पुननिर्माण हेतु एक सुनिश्चित , बहुआयामी तथा दीर्घकालीन नीति को सूचीबद्ध करने का प्रयास किया गया था । इसीलिए बुड के घोषणापत्र को भारत में अंग्रेजी शिक्षा का महाधिकार पत्र ( Magna Carta of English Education in India ) भी कहा जाता है । इस घोषणापत्र ने तत्कालीन भारतीय शिक्षा को एक नया मोड़ दिया । इसीलिए इसकी विस्तृत विवेचना उपयुक्त ही प्रतीत होती है । इस घोषणापत्र की मुख्य विशेषताएं अग्रांकित प्रस्तुत की जा रही हैं ।
1. शिक्षा नीति के संगठन के उद्देश्य ( Objects of the Organization of Eudcation Policy )
बुड के घोषणापत्र में भारतीयों के नैतिक व भौतिक विकास के लिए आवश्यक शिक्षा को सरकार का दायित्व स्वीकार करते हुए कहा गया था कि
" कोई भी अन्य विषय हमारा ध्यान इतना अधिक आकर्षित नहीं कर सकता है जितना कि शिक्षा । यह हमारा एक पुनीत कर्तव्य है कि भारत के निवासियों को उस नैतिक तथा भौतिक समृद्धि से युक्त को जो उपयोगी ज्ञान के सामान्य विस्तारण से फैलती है तथा जो भारत में इंग्लैंड से अपने सम्बन्धों के कारण प्राप्त कर सकता है ।
" ** Among many subjects of importance , none can be stronger claim to our attention than that of education . It is one of our most sacred duties to be the means of conferring upon the natives of India those vast moral and material ; blessings which flow from the general diffusion of useful knowledge and which India may derive from her connection with England . " .
" भारत में नागरिकों व्यापारिक प्रतिष्ठानों तथा ब्रिटिश घरानों के हित सबंधन की दृष्टि से शिक्षा के उद्देश्यों की चर्चा करते हुए घोषणापत्र में स्पष्ट किया गया था कि -
" शिक्षा का उद्देश्य बौद्धिक व चारित्रिक उन्नति करना , राजपदों के लिए सुयोग्य कर्मचारी तैयार करना , भारतीयों को समृद्ध बनाना , तथा ब्रिटिश उत्पादकों व जनता के उपभोग के लिए भावश्यक वस्तुओं की पूर्ति सुनिश्चित करने के साथ - साथ ब्रिटिश कामगारों द्वारा उत्पादित वस्तुओं की मांग बनाये रखना था ।
" We have always looked upon the encouragement of education not only to produce a higher degree of intellectual fitness , but to raise the moral character of those who partake of its advantages , and so to supply you with servants of whose profity you may with increased confidence commit offices of trust .... This ( European )
2. शिक्षा का माध्यम ( अंग्रेजी व देशी भाषाएं )
3. सहायता अनुदान प्रणाली
4. सरकारी संस्थाओं में स्वेच्छित धार्मिक शिक्षा
5. अध्यापको का प्रशिक्षण
6. महिलाओ की शिक्षा
7. विश्वविद्यालय की स्थापना
8. जनशिक्षक का प्रसार
स्टेनली का आज्ञापत्र ( Stanley's Despatch )
भारत की शासन व्यवस्था अपने हाथों में लेने के पश्चात् ब्रिटिश संसद ने भारत सचिव के पद का सर्जन किया । लार्ड स्टेनली की सबसे पहले इस पद पर नियुक्ति हुई । सन् 1859 में लार्ड स्टनेली ने भारतीय शिक्षा के सम्बंध में ब्रिटिश नीति की घोषणा की । उनके इस घोषणापत्र को ' स्टेनली के आज्ञापत्र ' के नाम से जाना जाता है । लाई स्टेनली ने अपने घोषणापत्र में वुड घोषणापत्र की नीति का समर्थन करते हुए उसकी लगभग सभी सिफारिशों का अनुमोदन किया । परंतु प्राथमिक शिक्षा के सम्बंध में उसने निम्नांकित परिवर्तन कर दिए ( 5 ) सरकार प्राथमिक शिक्षा का उत्तरदायित्व अपने ऊपर ले ले । ( ii ) सहायता अनुदान प्रणाली केवल माध्यमिक व उच्च शिक्षा तक सीमित रहे । ( ii ) आवश्यकता पड़ने पर सरकार प्राथमिक शिक्षा के लिए स्थानीय कर ( Cess ) लगाए । ( iv ) अध्यापकों के प्रशिक्षण पर विशेष ध्यान दिया जाये । इस आज्ञापन के फलस्वरूप शिक्षा के उत्तरदायित्व को आंशिक रूप से प्रान्तीय सरकार को हस्तान्तिरत कर दिया गया । बाद में सन् 1871 में लाई मेयर ( Lord Mayer ) ने शिक्षा विभागों को भी प्रान्तीय सरकारों के अधीन कर दिया तथा उन्हें शिक्षा पर व्यय करने की अनुमति प्रदान की जिसके फलस्वरूप शिक्षा का विकेन्द्रीकरण हो गया । सन् 1877 में लार्ड लिटन ( Lord Lyiton ) ने प्रान्तीय सरकारों को और भी अधिक शैक्षिक अधिकार दे दिए । प्रान्तीय सरकारों को शिक्षा के सम्बन्ध में इतने अधिक अधिकार देते हुए भी केन्द्र सरकार ने शिक्षा नीति के निर्धारण का अधिकार अपने पास ही रखा ।
भारतीय शिक्षा आयोग ( हन्टर आयोग ) ( Indian Education Commission ( Hunter Commission )
कम्पनी के अधिकारी रह चुके ब्रिटिश सरकारी अधिकारियों ने बुड के आदेश पत्र में निर्देशित जनसाधारण की शिक्षा का प्रसार करने के लिए सक्रिय कदम नहीं उठाए । उनकी इस हठधर्मी के कारण न केवल भारतवर्ष मे वरन् इंग्लैंड में भी असंतोष की लहर फैल गई । सरकार की धार्मिक तटस्थता नीति तथा शिक्षा के क्षेत्र में सरकारी अधिकार बढ़ जाने के कारण ईसाई निश्नरियों के शिक्षा प्रसार कार्यक्रमों को बड़ा धक्का लगा तथा वे क्षुब्ध हो गए । ऐसी स्थिति में भारत से सहानुभूति रखने वाले इंग्लैंड के कुछ व्यक्तियों ने भारत में शिक्षा की सामान्य परिषद ( General Council of Education in India ) का गठन किया तथा उसके तत्वाधान में तत्कालीन भारतीय शिक्षा नीति के विरुद्ध आंदोलन प्रारम्भ कर दिया । उनके उस आंदोलन में मिश्नरियों ने काफी सहायता की । सन् 1880 में लार्ड रिपन ( Lord Ripon ) को भारत में नए गवर्नर जनरल के रूप में मनोनीत किया गया तब इस परिषद के सदस्यों ने उनसे भेंट करके उन्हें अंग्रेज शिक्षा अधिकारियों की अनुदार शिक्षा नीति से अवगत कराया तथा भारतीय शिक्षा की जाँच करके उसके विकास का मार्ग प्रशस्त करने का अनुरोध किया ।
यहाँ यह स्मरणीय है कि सन् 1870 में इंग्लैंड में लिबरल मन्त्रिमंडल के द्वारा अनिवार्य प्राथमिक शिक्षा अधिनियम पारित किया जा चुका था तथा इसमें लार्ड रिपन का योगदान उल्लेखनीय था । यही कारण था कि लार्ड रिपन के वायसराय बनकर भारत आने पर उदार शिक्षाविज्ञ बहुत ही अधिक उत्साही व आशाविद् थे । लार्ड रिपन ने परिषदों के सदस्यों की इस इच्छा को पूरा करने का आश्वासन दिया तथा भारत पहुंचने के कुछ समय उपरान्त ही 3 फरवरी सन् 1882 को भारतीय शिक्षा आयोग ( Indian Education Commission ) की नियुक्ति की । इस आयोग के अध्यक्ष गवर्नर जनरल की कार्यकारिणी के सदस्य सर विलियम हंटर ( Sir William Hunter ) थे जिनके नाम पर आयोग को हंटर आयोग भी कहा जाता है तथा यह भी इसी नाम से अधिक प्रचलित है । इस आयोग में अध्यक्ष के अतिरिक्त बीस सदस्य तथा एक सचिव भी था जिसमें से सात भारतीय थे । इस आयोग के द्वारा प्रस्तुत प्रतिवेदन वह दूसरा प्रमुख प्रयास था जिसमें भारतीय शिक्षा नीति का पुनर्निरीक्षण व स्पष्टीकरण विस्तार से किया गया था । इस आयोग का मुख्य कार्य भारत में प्राथमिक शिक्षा की वर्तमान स्थिति तथा इसके विस्तार व उन्नति के उपायों की जाँच करना था ।
आयोग की जाँच का प्रमुख उद्देश्य सम्पूर्ण साम्राज्य में प्रारम्भिक शिक्षा की स्थिति एवं इसे सर्वत्र विस्तारित व समुन्नत करने वाले साधनों की जाँच करना है । '
" The principal object of the enquiry of the commission should be the present status of elementary education throughout the Empire and the means by which this can every where be extended and improved . "
इसके अतिरिक्त आयोग को निम्नलिखित दो विशिष्ट विचारणीय बिन्दु भी दिये गये -
( i ) क्या सरकार को मिश्नरियों के पक्ष में प्रत्यक्ष शैक्षिक प्रयास से हट जाना चाहिए । जैसा कि 1854 के घोषणापत्र में आशा की गई थी ।
( i ) Should Government withdraw from direct educational enterprise in favour of missionaries , as the Despatch of 1854 had led some of them to hope .
( ii ) सरकार की धार्मिक शिक्षा के सम्बंध में क्या नीति होनी चाहिए ? क्या इसे स्कूलों में दिया जाना चाहिए अथवा नहीं ? यदि हाँ तो किस रूप व विषय में तथा किन दशाओं तक इसे अनुमति दी जानी चाहिए ।
( 1 ) What should be the policy of Government in religious education ? Should it be imparted in schools or not ? If it was to be imparted , in what form and subject and to what conditions was it to be allowed ?
आयोग ने सम्पूर्ण देश का सर्वेक्षण करके , शिक्षाविदों पर विचार करके तथा शिक्षा सम्बन्धी राजकीय दस्तावेजों का अध्ययन करके मार्च 1883 में अपना विस्तृत प्रतिवेदन सरकार के समक्ष प्रस्तुत किया । आयोग की प्रमुख सिफारिशें निम्नवत् थी
1. देशी शिक्षा को प्रोत्साहन ( Encouragement to Indigeneous Education ) - प्राचीन भारतीय शिक्षा के सम्बंध में आयोग ने कहा कि “ यद्यपि देशी शिक्षा संस्थायें तुलनात्मक रूप में निष्कृष्ट हैं फिर भी जीवंतता व प्रचलन का द्योतक है । " उन्हें प्रोत्साहित करने के प्रयास किये जाने चाहिए । कठिन स्पर्धा के बावजूद ये विद्यमान हैं जो उनकी
2. प्राथमिक शिक्षा ( Primary Education ) - प्राथमिक शिक्षा के उद्देश्य प्रशासन व वित्त व्यवस्था के सम्बंध में आयोग ने संस्तुति की कि देश की वर्तमान परिस्थितियों में यह वांछनीय होगा कि जनसाधारण की प्रारम्भिक शिक्षा , विस्तार , सुधार को शिक्षा प्रणाली का वह अंग घोषित किया जाये जिसके लिए राज्य के प्रयास अधिक विस्तृत स्तर पर किये जाने चाहिए । आयोन ने यह भी कहा कि प्राथमिक शिक्षा को सम्पूर्ण जनसंख्या प्रणाली का बह अंग घोषित किया जाये जिसका शिक्षा के लिए रखे गये स्थानीय कोष पर लगभग पूर्ण अधिकार तथा प्रान्तीय राजस्व पर एक बड़ा अधिकार है । आयोग ने कहा कि " इसके ( जनशिक्षा विभाग के ) प्रयासों का परिणाम जनशिक्षा को अधिक विस्तृत एवं प्रचलित बनाना , शिक्षण में व्यक्तिगत उद्यम को प्रोत्साहित करना , देशी स्कूलों को उपयुक्त मान्यता देना तथा उच्च कक्षाओं के शिक्षण के साथ जनशिक्षा की प्रगति अधिक गति से करना होना चाहिए ।
3. माध्यमिक शिक्षा ( Secondary Education ) - माध्यमिक शिक्षा के सम्बन्ध में आयोग ने सिफारिश की कि " उन सभी जिलों में जहाँ जनहित की दृष्टि से आवश्यक हो , तथा जहाँ के निवासी हाई स्कूल खोलने के लायक प्रगतिशील अथवा धनी न हों , ऐसे जिलों में कम से कम एक मॉडल हाई स्कूल सहायता अनुदान प्रणाली के अंतर्गत स्थापित किया जाना चाहिए । आयोग ने यह भी कहा कि हाई स्कूलों की उच्च कक्षाओं में दो भाग होने चाहिए . एक विश्व विद्यालयों की प्रवेश परीक्षा के लिए तथा दूसरा , अधिक व्यावहारिक प्रकृति का जो नवयुवकों को व्यापारिक अथवा असाहित्यिक क्षेत्रों के लिए तैयार करें ।
4. उच्च शिक्षा ( Iligher Education ) - उस शिक्षा के सम्बंध में हंटर आयोग ने संस्तुति देते हुए कहा कि " प्रत्येक कॉलिज को दिए जाने वाले अनुदान की दर का निर्धारण उसके शिक्षाकों की संख्या , रख रखाव पर होने वाला व्यय , संस्था की कार्यकुशलता तथा स्थानीय आवश्यकताओं को ध्यान में रखकर किया जाना चाहिए ।
5. नारी शिक्षा ( Women Education ) - लड़कियों की शिक्षा के सम्बंध में आयोग का विचार था कि ऐसा देखा गया है कि स्त्रियों की शिक्षा अभी भी अत्यंत पिछड़ी है तथा इसे हर संभव ढंग से आगे बढ़ाना होगा । अतः बालिका विद्यालयों तथा साथ - साथ बालकों के विद्यालयों की सहायता हेतु प्रत्येक प्रकार के जनकोप स्थानीय नगरपालिका व प्रान्तीय कोषों से समान अनुपात में धन लिया जाना चाहिए ।
6. सरकार तथा मिश्नरियों की भूमिका ( Role of Government and Missonaries ) - शैक्षिक प्रयासों में सरकार तथा मिश्नरियों की भूमिका क्या होनी चाहिए , इस प्रश्न पर भी आयोग ने विचार किया तथा कहा कि उन्हें ( मिश्नरी संस्थाओं ) राज्य के सामान्य निरीक्षण के अंतर्गत अपने स्वतंत्र पाठ्यक्रम चलाने की अनुमति होनी चाहिए । जहाँ तक सम्भव हो तथा आवश्यकता हो , ऐसी संस्थाओं को व्यक्तिगत प्रयासों के लिए आवश्यक सभी प्रकार का प्रोत्साहन तथा सहायता दी जानी चाहिए ।
7. धार्मिक शिक्षा ( Religious Education ) - धार्मिक शिक्षा के सम्बंध में आयोग ने कहा कि राज्य की घोषित उदासीनता के अनुरूप राज्य के द्वारा संचालित शिक्षा संस्थाओं में धार्मिक शिक्षा नहीं दी जा सकती ।
8. सहायता अनुदान प्रणाली ( Grant in Aid System ) - सहायता अनुदान प्रणाली का समर्थन करते हुए आयोग ने सहायता अनुदान प्रणाली ( Grant - Aid System ) के क्रियान्वयन के सम्बंध में अनेक संस्तुतियाँ की । इनमें से कुछ अंग्राकित प्रस्तुत है
( i ) व्यक्तिगत प्रयन्धकों वाली संस्थायें सफल नहीं हो सकतीं यदि उन्हें शिक्षा की सामान्य प्रणाली का आवश्यक अंग स्पष्ट ढंग से स्वीकार नहीं किया गया -- गैर सरकारी संस्थाओं के प्रबन्धको से सामान्य शैक्षिक रुचियों वाले प्रकरणों पर परामर्श लिया जाना चाहिए तथा उनके छात्रों को प्रमाण - पत्रों , छात्रवृत्तियों व अन्य जन विभूषणों की प्रतियोगिता में समान आधार पर प्रवेश दिया जाना चाहिए ।
( i ) सभी विभागीय परीक्षाओं के संचालन में गैर सरकारी विद्यालयों के प्रबन्धकों अथवा अध्यापकों को विभाग के अधिकारियों के साथ यथासम्भव संयुक्त किया जाना चाहिए ।
( iii ) सरकारी विद्यालय के नजदीक होना किसी गैर सरकारी विद्यालय को अनुदान से मना करने का पर्याप्त कारण नहीं होना चाहिए ।
( iv ) विभिन्न प्रान्तों की परिस्थितियों के अनुरूप विद्यालयों को सहायता प्राप्त करने तथा स्थानीय योगदान को बढ़ाने के लिए सहायता अनुदान के नियमों को संशोधित किया जाना चाहिए । संशोधित नियमों में किसी विद्यालय को इमारत , उपकरण व फर्नीचर के लिए मिलने वाले अनुदान की राशि व अवधि तथा दशाओं को बिना किसी स्पष्टहीनता के वर्णित किया जाना चाहिए ।
( ४ ) सहायता अनुदान की प्रत्येक प्रार्थना पत्र का कार्यालयी उत्तर देना चाहिए तथा अस्वीकार करने पर उसके कारण दिये जाने चाहिए ।
( vi ) सहायता सिद्धान्त का सामान्य सिद्धान्त होना चाहिए कि सहायता अनुदान स्थानीयता व संस्था के वर्ग पर निर्भर होना चाहिए । पिछड़े जिलों के स्कूलों , कन्या विद्यालयों तथा निम्न जातियों व पिछड़े समुदायों के स्कूलों को अधिक अनुपात में सहायता दी जानी चाहिए ।
( vii ) अनुदान बिना किसी विलम्ब के नियत समय पर दिये जाने चाहिए ।
( viii ) सहायता प्राप्त संस्थाओं के विस्तार के लिए प्रत्येक प्रान्त के शिक्षा बजट में बढ़ती हुई धनराशि की व्यवस्था करनी चाहिए ।
( ix ) विशिष्ट विषयों के लिए अनुदान देकर सहायता प्राप्त स्कूलों के अध्ययन विषयों में वैभिन्नता को प्रोत्साहित करना चाहिए ।
( x ) जनपरीक्षाओं को सभी स्कूलों में समान पाठ्यपुस्तकों तथा पाठ्यक्रम लागू करने का व्यावहारिक साधन बनाना चाहिए ।
( xi ) आवश्यक योग्यताओं से युक्त भारतीयों को विद्यालय निरीक्षक बनाया जाना चाहिए ।
हन्टर आयोग के द्वारा प्रस्तुत किये गये अधिकांश सुझाव स्वीकार कर लिये गये तथा तदनुसार शिक्षा की व्यवस्था की जाने लगी । प्राथमिक शिक्षा को स्थानीय निकायों को दे दिया । माध्यमिक शिक्षा में गैर सरकारी प्रयासों को प्रोत्साहित किया जाने लगा । बीसवीं शताब्दी के प्रारम्भ तक भारतीय शिक्षा हन्टर आयोग के द्वारा दी गई संस्तुतियों के अनुरूप चलती रही ।
हन्टर आयोग ऐसा प्रथम प्रयास था , जिसने भारतीय शिक्षा के विभिन्न पक्षों का गहन अध्ययन किया तथा उनके सम्बन्ध में विस्तृत संस्तुतियाँ प्रस्तुत की । आयोग के सुझावों ने भारतीय शिक्षा को एक निश्चित दिशा दी तथा सन् 1854 के आदेशपत्र में निर्धारित सिद्धान्तों का समर्थन करते हुए उनके क्रियान्यवन की रूपरेखा प्रस्तुत की । सहायता - अनुदान की उदार नीति के अनुसरण से शिक्षा के तीब्र विकास का मार्ग प्रशस्त हो सका । माध्यमिक शिक्षा के पाठ्यक्रम को दो बर्गों में विभक्त करने का सुझाव देकर आयोग ने शिक्षा के एकांगीपन को दूर करके शिक्षा को रोजगारोन्मुख बनाने का प्रयास किया । आयोग की संस्तुतियों के फलस्वरूप ही भारतीयों ने शिक्षा के क्षेत्र में पदार्पण किया जो कि राष्ट्रीय चेतना जागृत करने का आधार बना । मिश्नरियों के द्वारा अपेक्षित शैक्षिक अधिकारों को उन्हें प्रदान न करना , हन्टर आयोग के द्वारा . भारतीयों पर किया गया एक बड़ा उपकार था । इससे भारतीयों को लगा कि देश की शिक्षा व्यवस्था का भार उन्हें अपने ऊपर ले लेना चाहिए जिसकी परिणति व्यक्तिगत प्रयासों के प्रस्फुटन में हुई जो कालान्तर में विशाल वट वृक्ष के रूप में विकसित हो गया । आयोग ने स्त्रियों , हरिजनों तथा पिछड़े वर्गों के शैक्षिक विकास के लिए भी सुझाब दिये जिसके फलस्वरूप उन्हें शिक्षा प्राप्ति के अधिक अबसर सुलभ हो सकें । वस्तुतः हन्टर आयोग की सिफारिशों के क्रियान्वयन से भारत में महान शैक्षिक क्रान्ति हुई तथा उन्नीसवीं शताव्दी की शेष अवधि में भारतीय शिक्षा इस आयोग के निर्णयों से निर्धारित होती रही ।
निःसन्देह हन्टर आयोग ने अनेक उपयोगी सुझाब दिये फिर भी अनेक आलोचकों ने इसकी कमियों की ओर भी संकित किया है । आलोचकों के द्वारा की गई आलोचना मुख्यतः छह कारणों से है । यह छह कारण अंग्राकित प्रस्तुत है।
1. हंटर आयोग के द्वारा की गई संस्तुतियों में मौलिकता का अभाव है । वस्तुतः इस आयोग के द्वारा प्रस्तुत किए गए अधिकांश सुझाव सन् 1854 में बुड के घोषणापत्र में दिये गये सुझावों की पुनरावृत्ति मात्र थी ।
2. आयोग ने शिक्षा माध्यम के सम्बंध में कोई सुझाव नहीं दिया । शिक्षा का माध्यम अंग्रेजी वन जाने के कारण भारतीय भाषाओं का अध्ययन हतोत्साहित होने लगा जिसके फलस्वरूप भारतीय भाषाओं का विकास अवरुद्ध हो गया ।
3 . इस आयोग के द्वारा आयोगिक तथा व्यावासायिक शिक्षा के सम्बंध में कोई संस्तुति न देने के फलस्वरूप देश की आर्थिक व औद्योगिक प्रगति को ठेस पहुंची ।
4. हंटर आयोग ने प्राथमिक शिक्षा का दायित्व स्थानीय निकायों के ऊपर डाल दिया , जबकि इन निकायों के पास जनसाधारण की शिक्षा के लिए आवश्यक धन की व्यवस्था नहीं थी । आयोग के द्वारा संस्तुत निर्वाण - नीति ( Withdrawal Policy ) के कारण राज्य शिक्षा के दायित्व से मुक्त हो गए ।
5 . आयोग ने अनिवार्य प्राथमिक शिक्षा के सम्बंध में कोई संस्तुति नहीं दी । यह शिक्षा के सार्वजनिकीकरण के प्रयासों की अवहेलना थी ।
6. शिक्षा के क्षेत्र से सरकार का उत्तरदायित्व समाप्त हो जाने के फलस्वरूप व्यक्तिगत विद्यालयों की संख्या तीव्र गति से बढ़ी । यह शिक्षा का संख्यात्मक विकास तो था परंतु इसके कारण शिक्षा की गुणवत्ता का हास हुआ ।
आलोचकों के द्वारा हंटर आयोग की संस्तुतियों में उपरोक्त वर्णित कमियों में सत्य का पुट अवश्य है , परंतु आयोग के द्वारा दिए गए सुझावों ने लगभग बीस वर्ष तक भारतीय शिक्षा के विभिन्न आयामों को प्रभावित किया । हंटर आयोग ने बुड के घोषणा पत्र के सुझावों को दोहराया अवश्य , परंतु इस पुनरावृत्ति के द्वारा इन संस्तुतियों में एक नई जान आ गई । यही कारण है कि भारतीय शिक्षा आयोग ( हंटर आयोग ) को आधुनिक भारतीय शिक्षा के इतिहास में अत्यन्त महत्वपूर्ण स्थान दिया जाता है ।
सारांश
ब्रिटिशकालीन शिक्षा का प्रारम्भ ईसाई मिश्नरियों के द्वारा किये गये धर्म प्रचार के प्रयासों के फलस्वरूप हुआ था । सन् 1757 में बंगाल विजय के उपरान्त धीरे - धीरे सम्पूर्ण भारतवर्ष पर ईस्ट इण्डिया कम्पनी का प्रसार में रुचि दिखलाई । शासन स्थापित हो गया । ईस्ट इंडिया कम्पनी ने अपने व्यापारिक व राजनैतिक उद्देश्यों के लिए शिक्षा प्रसार में रुचि दिखलाई।
सीरामपुर त्रिमूर्ति - कैरे , वार्ड तथा मार्शमैन ने सीरामपुर बंगाल में ईसाई धर्म के प्रचार तथा हिन्दू . व मुस्लिम धर्म की आलोचना करने वाली एक पुस्तिका का प्रकाशन तथा वितरण किया ।
चार्ल्स ग्राण्ट के शैक्षिक प्रयास - चार्ल्स ग्राण्ट ने सन् 1792 में एक पंचसूत्रीय योजना प्रस्तुत की थी ' जिसमें भारत में विद्यालयों की स्थापना , अंग्रेजी माध्यम से शिक्षा , अंग्रेजी साहित्य की शिक्षा , पाश्चात्य ज्ञान व विज्ञान का प्रसार तथा ईसाई धर्म के प्रचार की आवश्यकता पर बल दिया ।
सन् 1813 का आज्ञापत्र – ब्रिटिश संसद के द्वारा पारित किए गए इस अधिनियम में भारत में शिक्षा के ऊपर कम से कम एक लाख रुपये प्रतिवर्ष व्यय करने का आदेश ईस्ट इंडिया कम्पनी को दिया गया या । जिसे सन् 1833 के आज्ञापत्र में बढ़ाकर दस लाख रु ० वार्षिक कर दिया गया ।
प्राज्य- पाश्चात्य शिक्षा विवाद - शिक्षा के लिए निर्धारित धन राशि संस्कृत - फारसी के माध्यम से दी जाने वाली प्राचीन सरकार की शिक्षा पर व्यय करनी चाहिए अथवा अंग्रेजी के माध्यम से पाश्चात्य प्रकार की शिक्षा पर व्यय की जानी चाहिए , इस पर मतभेद हो गया जिसके कारण शिक्षा के लिए निर्धारित धनराशि ठीक ढंग से खर्च नहीं की जा सकी ।
मैकाले का विवरण पत्र - सन् 1835 में लार्ड मैकाले ने भारत में शिक्षा का उद्देश्य अंग्रेजी माध्यम से यूरोपीय साहित्य तथा विज्ञान का प्रचार करना घोषित किया जिससे पाश्चात्य तथा विज्ञान में रंगे भारतीय तैयार हो सके जो अंग्रेजी शासन में सहायक हों । मैकाले ने अधोगामी निस्यन्दन सिद्धान्त की संकल्पना करते हुए कहा कि समान्त वर्ग को शिक्षित करने पर समाज के निम्न वर्ग तक शिक्षा स्वतः ही पहुंच जायेगी ।
वुड का घोषणापत्र - सन् 1854 में वुड घोषणापत्र में तत्कालीन शिक्षा व्यवस्था के पुनरीक्षण तथा भावी शैक्षिक पुनर्निर्माण के लिए नीति को प्रस्तुत किया गया जिसमें जनसाधारण के लिए शिक्षा व्यवस्था करने , छोटी कक्षाओं में प्रान्तीय भाषाओं को शिक्षा का माध्यम बनाने , अध्यापकों का प्रशिक्षण प्रारम्भ करने तथा विश्वविद्यालयों की स्थापना करने की बात कही गई है ।
हंटर आयोग - सन् 1882 में गठित हंटर आयोग ने देशी शिक्षा को प्रोत्साहन देने , प्राथमिक शिक्षा का विस्तार करने तथा नारी शिक्षा को प्रोत्साहित करने के साथ - साथ शिक्षा का उत्तरदायित्व वैयक्तिक संस्थाओं को सौंपने तथा उदारता पूर्वक सहायता अनुदान देने की अनुशंसा की ।