पाठ्यचर्या का निर्माण और विकास
अर्थ एवं परिभाषाएं
पाठ्यचर्या विकास शिक्षा एवं वे सारे अनुभव जो अधिगमकर्ताओं को स्कूल में उनके व्यवहार तथा उनके मानसिक समुच्चय में इच्छित परिवर्तन लाने के लिए प्रदान किये जाते हैं पाठ्यचर्या कहलाते है । इसमें ज्ञान , कौशल , मूल्य , सभी कुछ शामिल होते हैं से पूर्व निर्धारित होते हैं ताकि अध्यापक अपनी कार्य रेखा से विचलित न हो ।
शिक्षाविदों ने पाठ्यचर्या को निम्न प्रकार से परिभाषित किया |
1. टी.पी. नन- हर प्रकार की वह क्रियाएं जोकि मानव सोच की बड़ी अभिव्यक्ति होती हैं और जोकि विशालकाय संसार में सबसे बड़ी तथा सबसे अधिक स्थायी महत्त्व की होती हैं उन्हें पाठ्यचर्या समझा जाना चाहिए ।
2. कानिंगहम- पाठ्यचर्या अध्यापक ( कलाकार ) के हाथ में सामग्री ( छात्र ) को ढालने के लिए अपने आदर्शों के अनुसार अपने स्टूडियो कक्षा में एक उपकरण होती है ।
3. सेकेन्ड्री शिक्षा आयोग- पाठ्यचर्या से तात्पर्य केवल वे एकेडेमिक विषय नहीं होते जोकि स्कूलों में परम्परागत रूप से पढ़ाये जाते हैं बल्कि इसमें वे सारे अनुभव शामिल होते हैं जोकि छात्र सैकड़ों प्रकार की क्रियाओं के माध्यम से स्कूल में , कक्षा में , पुस्तकालय में , खेल के मैदान में या अध्यापक व शिष्य के बीच में विविध प्रकार के अनौपचारिक सम्पर्को के माध्यम से प्राप्त करता है । इस प्रकार स्कूल का पूरा जीवन पाठ्यचर्या बन जाता है जोकि छात्र के जीवन के हर बिन्दु को छूता हो और एक सन्तुलित व्यक्तित्व के मूल्यांकन एवं विकास में उनकी सहायता करता हो ।
पाठ्यचर्या की विशेषताएं -
पाठ्यचर्या की प्रमुख विशेषताएं निम्न हैं-
1 वे सारे अनुभव जो छात्र विभिन्न प्रकार की क्रियाओं के माध्यम से प्राप्त करते हैं पाठ्यचर्या कहलाता है ।
2. पाठ्यचर्या वह माध्यम होती है जिसके द्वारा शैक्षिक उद्देश्य ( अधिगमकर्ता के व्यवहार में इच्छित परिवर्तन लाना ) प्राप्त किया जाता है । पाठ्यचर्या में पाई जाने वाली कोई कमी अधिगमकर्ता के व्यवहार में भी गलत परिवर्तन ले आयेगी ।
3. अध्यापकों की छात्रों के प्रति अभिवृत्ति भी पाठ्यचर्या का अंग होती है ।
4. पाठ्यचर्या शैक्षिक लक्ष्य एवं उद्देश्य प्राप्त करने में अध्यापक की सहायता करती है ।
5. पाठ्यचर्या स्थानीय आवश्यकताओं एवं परिस्थितियों को भी प्रतिबिम्बित करती है । इसलिए स्कूल प्राधिकरण इस पर भी ध्यान देता है । इसीलिए स्कूल को पाठ्यचर्या में थोड़ा बहुत संशोधन करने की अनुमति होती है यदि पाठ्यचर्या लोचदार है तभी यह सम्भव हो सकता है ।
पाठ्यचर्या के प्रकार
पाठ्यचर्या के प्रमुख प्रकार निम्न हैं
1. विषय केन्द्रित ( परम्परागत ) पाठ्यचर्या- यह सीमित समय अवधि में जो विषय पढ़ाया जाना है उसके विषय में एक लिखित कथन होता है । इसमें हर विषय एक अलग इकाई होता है और इसका क्षेत्र स्पष्ट शब्दों में परिभाषित होता है । इसमें अध्ययन का उद्देश्य केवल बालकों का मानसिक विकास करना होता है ।
दोष
1. इसमें केवल विषय वस्तु के अध्ययन पर बल दिया जाता है और बालकों की क्रियाओं पर कोई ध्यान नहीं दिया जाता । इस प्रकार इस पाठ्यचर्या के द्वारा केवल बालकों का मानसिक विकास सम्भव है ।
2. इसमें विभिन्न विषयों के ज्ञान को विभिन्न डिच्चों में विभाजित कर दिया जाता है । इस प्रकार विभिन्न विषयों के बीच में आपस में कोई सह सम्बन्ध भी नहीं होता ।
3. यह पाठ्यचर्या कठोर एवं बेलोच होती है जिसमें चालकों की आवश्यकताओं , रुचिओं एवं योग्यताओं को बिल्कुल ध्यान में नहीं रखा जाता । इसीलिए इसे स्थानीय परिस्थितियों के अनुकूल ढाला नहीं जा सकता ।
4. यह पाठ्यचर्या एक केन्द्रीय प्राधिकरण द्वारा तैयार की जाती है फिर इसे ऊपर से थोप दिया जाता है ।
5. जब इसे प्राधिकरण द्वारा तैयार कर दिया जाता है तो फिर स्कूलों को इस पर कुछ कहने सुनने का अधिकार नहीं रह जाता ।
6. इस प्रकार की पाठ्यचर्या में केवल रटने पर ध्यान दिया जाता है और यह नहीं देखा जाता कि इसका रोजमर्रा के जीवन में क्या उपयोग है । विषय सामग्री को रट कर केवल परीक्षा पास करने पर बल दिया जाता है ।
7. इस पाठ्यचर्या में बालकों की प्रतिभाओं एवं रुचियों की विविधता के लिए कोई प्रावधान नहीं होता ।
गुण
1. इस प्रकार की पाठ्यचर्या का लाभ यह है कि इसमें क्या पढ़ना है यह सब पहले से स्पष्ट होता है और अध्यापक के लिए मार्ग से भटकने का कोई अवसर नहीं होता । छात्रों को भी यह पता होता है कि परीक्षा पास करने के लिए उन्हें क्या - क्या पढ़ना है और याद करना है ।
2. क्रिया केन्द्रित पाठ्यक्रम- यह पाठ्यचर्या रूसो , फ्रोवेल , मान्टेसरी तथा डीवी के सिद्धान्तों पर आधारित है । ये लोग , स्कूलों में रटने के बजाय क्रिया पर बल देते हैं । इस पाठ्यचर्या में स्कूलों में जो कुछ भी पढ़ाया जाना होता है उसे विभिन्न प्रकार की क्रियाओं में परिवर्तित कर लिया जाता है और करके सीखना विधि के द्वारा ज्ञान प्राप्त किया जाता है । इसमें भाषा के बजाय क्रिया शिक्षा का माध्यम होती है । यह चूंकि बालकों की रुचियों , योग्यताओं आदि को ध्यान में रखकर तैयार किया जाता है इसलिए यह विषय केन्द्रित पाठ्यचर्या की अधिकांश कमियां को दूर कर सकता है । इस प्रकार की पाठ्यचर्या को निम्न कारणों से प्राथमिकता दी जाती है--
1. इस पाठ्यचर्या में भाषा की कमजोरी नाथा नहीं बनती ।
2. छात्र परस्पर सहयोग से अपनी समस्याएं स्वयं हल कर लेते हैं ।
3. यह छात्रों के व्यक्तित्व विकास में बहुत सहायक होती है ।
4. यह बाल केन्द्रित होने के कारण बच्चों को बहुत उपयुक्त लगती है ।
3. अनुभव केन्द्रित पाठ्यचर्या- वे अनुभव जो छात्रों को विविध प्रकार के ज्ञान , कौशल , अभिवृत्ति एवं प्रशंसा प्रदान करती है अनुभव केन्द्रित पाठ्यचर्या कहलाती है । चूंकि क्रियाओं को अनुभव से अलग नहीं किया जा सकता इसलिए इन्हें क्रिया केन्द्रित पाठ्यक्रम भी कहा जाता है । अनुभव वास्तव में जीव की उसके सामाजिक एवं भौतिक वातावरण के साथ अन्तःक्रिया है । इस प्रकार यह पाठ्यचर्या बालक की उसके आसपास के वातावरण में समायोजित होने में सहायता करती है ।
4. एकीकृत पाठ्यक्रम- वह पाठ्यचर्या जो ज्ञान की विशेषज्ञता पर बल नहीं देती और जो विभिन्न विषयों को एक स्तर विशेष पर तथा इन विषयों को जीवन से जोड़ देती है एकीकृत पाठ्यचर्या कहलाती है । इसमें विषयों एवं क्रियाओं को आपस में जोड़ दिया जाता है तथा शिक्षा के एक स्तर को दूसरे स्तर से इस प्रकार से जोड़ा जाता है कि उच्च स्तरों पर ज्ञान विकसित होता चला जाता है । अर्थात् जिस अकबर या बाबर के विषय में हम कक्षा VI में पढ़ते हैं उसी के विषय में हम कक्षा XII या MA इतिहास में भी पढ़ते हैं किन्तु विस्तार से । यह पाठ्यचर्या व्यक्तित्व के पूर्ण विकास के लिए बहुत उपयोगी है ।
5. सन्तुलित या कोर पाठ्यचर्या- इस पाठ्यचर्या का निर्माण पाठ्यचर्या निर्माण के सभी सिद्धान्तों को ध्यान में रख कर किया जाता है । इस पाठ्यचर्या में क्रियाओं का चयन करते समय यह ध्यान रखा जाता है कि कित आयु के लिए किस प्रकार की क्रियाएं उपयुक्त होंगी । यह पाठ्यचर्या समाज तथा बालक दोनों की आवश्यकता पूरी करती है यह शिक्षा के सामाजिक एवं सांस्कृतिक कार्यों को पूरा करने में भी सहायता करती है तथा बालक को सृजनशील , दूरदर्शी बनाने के साथ - साथ अनुकूलित भी बनाती है, विशेषज्ञ ज्ञान एवं अनुभव प्रगतिशील से दिया जाता है तथा प्रथम कक्षा से लेकर अन्तिम कक्षा तक सामान्य से विशिष्ट की ओर चला जाता है । इसका उद्देश्य बालक को भविष्य में आत्मनिर्भर बनाना होता है ।
पाठ्यचर्या निर्माण के प्रमुख सिद्धान्त
1. बाल केन्द्रीयता का सिद्धान्त- इसमें बालक की रुचि आयु , योग्यता तथा आवश्यकता आदि को ध्यान रखकर पाट्यचर्या का निर्माण किया जाता है । इस प्रकार पाठ्यचर्या को व्यक्तिगत एवं मनोवैज्ञानिक आधारों पर तैयार किया जाता है । इसमें हम बालक को जो अनुभव प्रदान करना चाहते हैं उसे उसकी आयु से सहसम्बन्धित कर देते हैं । इसमें बालक की वैयक्तिकता को सदैव सर्वोपरि रखा जाता है ।
2.समुदाय केन्द्रीयता का सिद्धान्त- इस पाठ्यचर्या में समुदाय ( समाज ) की आवश्यकताएं प्रतिबिम्बित होती है यह पाठ्यचयां बालक को इस योग्य बनाती है कि आगे चल कर वह अपनी जीविका कमा सके तथा समाज में ठीक से समायोजित हो सके । यह तभी सम्भव जब पाठ्यचर्या द्वारा समाज की आवश्यकताएं पूरी हो सके । इस प्रकार यह पाठ्यचर्या समाजशास्त्रीय आधारों पर तैयार की जाती है ।
3. एकीकरण का सिद्धान्त- विभिन्न विषयों द्वारा निर्धारित विभिन्न बाल क्रियाओं को एक दूसरे से एकीकृत करके और फिर इन्हें उस वातावरण से एकीकृत करके जिसमें बालक रहता है यह पाठ्यचया तैयार की जाती है बालक को इस योग्य बनाती है कि वह जीवन के प्रति सम्पूर्णगत holistic ) उपागम अपना सकता है । एकीकरण विशेषीकरण का विरोधी नहीं है । विशेषीकरण बालक तब प्रदान किया जाता है जब बालक वास्तव में उसे पचाने के योग्य हो जाता है ।
4.वैयक्तिक भिन्नता का सिद्धान्त- समाज के सामान्य बालकों की अपेक्षा कुछ बालक बहुत प्रतिभावान तथा कुछ अपंग भी होते हैं । इसके अलावा सामान्य बालकों में भी सैकड़ों प्रकार की भिन्नताएं पायी जाती हैं पाठ्यचर्या का निर्माण करते समय इन सब बातों को उसमें उचित स्थान दिया जाना चाहिये ताकि सभी प्रकार के बालकों को अधिकतम सीमा तक विकसित होने का अवसर मिल सके ।
5. दूरदर्शिता का सिद्धान्त- कोई भी समाज कभी स्थिर नहीं रहता । इसमें निरन्तर विकास एवं परिवर्तन होता रहता है । इस पाठ्यचर्या का निर्माण करते समय समाज की भावी आवश्यकताओं को भी ध्यान में रखा जाना चाहिये । इस प्रकार यह पाठ्यचर्या छात्रों को भी दूरदर्शी बनाती है ।
6. क्रिया का सिद्धान्त- पाठ्यचर्या को करके सीखना के सिद्धान्त को ध्यान में रख कर तैयार किया जाना चाहिये । अर्थात् इसमें केवल रटने रटाने पर बल न हो । छात्रों को आत्म अनुभवों के द्वारा करके सीखने का अवसर मिलना चाहिये । यह क्रिया शारीरिक भी होगी तथा मानसिक भी । जब पाठ्यचर्या ऐसी होगी तो बालक विज्ञान का अध्ययन करके क्रियाशील नमूने तथा सामाजिक विज्ञान का अध्ययन करके समाज का अच्छा चित्रण कर पायेंगे ।
7. लोच का सिद्धान्त- यदि पाठ्यचर्या बेलोच है तो यह बदलते हुए समाज की आवश्यकताओं को पूरा नहीं कर सकती । और यदि यह लोचदार है तो वह हर समय नये विषयों एवं क्रियाओं को अपने में शामिल कर सकती है । लोचदार होने से यह लाभ भी होता है कि स्थानीय आवश्यकताओं को ध्यान में रखते हुए अध्यापक इसमें अपने विचार एवं अनुभव भी जोड़ सकता है ।
8. सन्तुलन का सिद्धान्त- अच्छी पाठ्यचर्या की पहचान यह होती है कि यह शिक्षा के हर स्तर पर तथा विभिन्न स्तरों के बीच परस्पर सन्तुलित होता है । ऐसा नहीं होता कि कक्षा V में बहुत अधिक पढ़ा दिया जाये और कक्षा VI में पाठ्यचर्या कम हो । इसी प्रकार यह भी नहीं होना चाहिये कि एक विषय का पाठ्यक्रम 6 माह में पूरा हो जाये और दूसरे विषय का पाठ्यक्रम 12 माह में भी पूरा न हो । सन्तुलित पाठ्यक्रम विभिन्न प्रकार के शिष्यों एवं उनकी क्षमताओं के बीच भी सन्तुलन बनाये रखता है ।
9. संगठन सिद्धान्त- पाठ्यचर्या को संगठित करने की बहुत सी विधियां हैं । इसे इकाई बद्ध तरीके से संगठित किया जा सकता है और विषय बद्ध तरीके से भी । इन बहुत सारी विधियों में से किसे चुना जाये इस प्रश्न का उत्तर एक ही पाठ्यचर्या के लिए विभिन्न दृष्टिकोण अपना कर प्राप्त किया जा सकता है । यह काम उसी व्यक्ति द्वारा होना चाहिये जिसने पाठ्यचर्या का निर्माण किया है । इसे अध्यापकों पर नहीं छोड़ा जाना चाहिये ।
10. उपयोगिता का सिद्धान्त- पाठ्यचर्या में केवल उन्हीं बातों को शामिल किया जाना चाहिये जोकि छात्र एवं समाज दोनों के लिए किसी न किसी रूप में उपयोगी हो । यह ऐसा हो जो आगे बालक को एक उपयोगी एवं उत्पादक नागरिक बना सके ।
पाठ्यचर्या निर्माण के विभिन्न उपागम
पाठ्यचर्या निर्माण के विभिन्न उपागम एवं प्रतिमान निम्न हैं-
1.टाइलर का साधन साध्य उपागम- टाइलर द्वारा यह उपागम 1950 में दिया गया । यह जान डीवी के 1929 के कृत्यों पर आधारित है । यह चार मोलिक प्रश्नों को सम्बोधित करता है
1. स्कूल क्या शैक्षिक उद्देश्य प्राप्त करना चाहता है
2. इन उद्देश्यों को प्राप्त करने के लिए क्या शैक्षिक । अनुभव छात्रों को प्रदान किये जा सकते हैं
3. इन शैक्षिक अनुभवों को प्रभावी ढंग से किस प्रकार संगठित किया जा सकता
4. इस बात को कैसे निर्धारित किया जा सकता है कि शैक्षिक उद्देश्य प्राप्त हुए या नहीं ।
इस प्रकार इस उपागम में निम्न चार बातों को ध्यान में रखना पड़ता है
· उद्देश्यों का निर्धारण
· अनुभवों का चयन
· पाठ्यचर्या ( अनुभवों ) का संगठन
· अनुभवों का मूल्यांकन
इस प्रकार यह उपागम यह मानता है कि उद्देश्य प्राप्ति के लिए पाठ्यचर्या साधन का काम करती है । इस प्रतिमान को तबा द्वारा 1962 में विस्तारित किया गया । उसने पाठ्यचर्या निर्माण के लिए आठ पदों को प्रस्तावित किया
· आवश्यकताओं का पता लगाना ।
· विशिष्ट उद्देश्यों को निर्धारित करना ।
· शिक्षा के विभिन्न स्तरों पर विषय वस्तु का चयन करना |
· शिक्षा के विभिन्न स्तरों पर विषय वस्तु को संगठित करना ।
· अधिगम अनुभवों का चयन करना
· अधिगम अनुभवों को संगठित करना ।
· - अधिगम का मूल्यांकन ।
· - सन्तुलन एवं क्रम का पता लगाना ।
2. स्किवाब ( 1971 ) तथा वाकर ( 1971 ) का प्रकृतिवादी उपागम- यह पूरी प्रक्रिया के वर्णनात्मक अध्ययन पर आधारित उपागम है जोकि नियोजन प्रक्रिया पर बल देता है यह प्रक्रिया इतनी स्वाभाविक होती है कि यह राष्ट्रीय नियोजन समूह तथा व्यक्तिगत कक्षाओं दोनों को एक साथ कवर करती है ।
सामूह के सन्दर्भ में नियोजन के लिए गहन चिन्तन पाठ्यचर्या विकास की सबसे महत्त्वपूर्ण संकल्पना है । यह वह प्रक्रिया है जिसके द्वारा निर्माता ऐसा निर्णय लेता है कि प्रासंगिक तथ्य विकल्प समाधान तक पहुंचा दें । इस उपागम निर्माता अनुभवों के जीव पर प्रभाव , अनुभवों की लागत आदि को भी तौलते हैं । इस प्रकार वे उपलब्ध विकल्पों में से सबसे अच्छा चुनने का प्रयास करते हैं ।
पाठ्यचर्या विकास के लिए जहाँ तक व्यक्तिगत प्रयासों का प्रश्न है लो यह काम अध्ययन चक्र की सीमा के अनुसार अध्यापक करते हैं । यहाँ अध्यापकों की योजना का वर्णनात्मक अध्ययन भी आवश्यक होता है ।
अध्यापक नियोजन के दो प्रतिमान निम्न हैं
प्रतिमान सं . ( 1 ) - इस प्रतिमान में अध्यापक नियोजन चार स्तर शामिल हैं
पाठ्यचर्या विकास के लक्ष्य की योजना बनाना ।
नियोजन में सूचना के स्रोतों का प्रयोग करना ।
प्रयोग की जाने वाली योजना के रूप को निर्धारित करना । -
नियोजन की प्रभाव – शीलता का पता लगाने के लिए प्रयोग किये जाने वाले मानदन्ड निर्धारित करना ।
प्रतिमान सं . ( 2 ) - यह प्रतिमान नियोजन के निम्न तीन पर आधारित है
समस्या का पता लगाने वाला चरण जिसमें अध्यापक की अच्छी संकल्पनाएँ , सामान्य ज्ञान , उपलब्ध संसाधनों का ज्ञान आदि को शामिल किया जाता है ।
- समस्या के समाधान का चरण जिसमें यह योजना बनायी जाती है कि अनुभवों को कैसे संगठित किया जाये कि कम लागत पर अधिक लाभ मिल सके ।
- योजना के क्रियान्वयन का चरण जिसमें क्रियान्वयन के बाद मूल्यांकन को भी शामिल किया जाता है ।
3.ज्ञान मीमांसा उपागम- इस उपागम को व्यावहारिक ज्ञान की कला उपागम भी कहा जाता है । इस व्यावहारिक ज्ञान का पता लगाने के लिए कक्षा में वास्तव में क्या हो रहा है इसका अनुभव आधारित ( Empirical ) अध्ययन करने की आवश्यकता है । इसके अलावा जब मात्र प्राइमरी , सेकेन्ड्री या उच्च शिक्षा छोड़ दें तो उस समय उनके सतत् मूल्यांकन की आवश्यकता होती है और साथ ही साथ छात्रों के परिवार , समुदाय , उनके नियोक्ता तथा साथी आदि की प्रतिक्रियाओं का भी मूल्यांकन होना चाहिये । इस प्रतिमान को पाठ्यचर्या विकास का जन व्यापक ( gross Root ) प्रतिमान भी कहा जाता है । इसमें छात्रों की सफलता एवं असफलता दोनों का एक साथ व्यावहारिक दृष्टिकोण से अध्ययन किया जाता है । इस प्रकार वह पाठ्यचर्या विकास का प्रयोजनवादी उपागम है । इसमें व्यवहारिकता की कमी के लिए समस्याओं का आकर्षक समाधान आवश्यक हो जाता है यह प्रतिमान यह मान कर चलता है कि पाठ्यचर्या को अधिकतम् जनता के लिए उपयोगी होना चाहिये ।
4. अनुभवों का विश्लेषण उपागम- यह उपागम प्रत्ययवादियों द्वारा दिया गया है । उन्होंने यह संकेत दिया कि उद्देश्य अधिगमकर्ता आदि आपत्तिजनक प्रत्यय हैं क्योंकि वे शिक्षा के केवल उपकरणवादी एवं तकनीकी पहलुओं पर ध्यान केन्द्रित करते हैं । और इस प्रकार शिक्षा के नैतिक सौन्दर्य अनुभूति सम्बन्धी , राजनीति आदि आयामों की पूरी उपेक्षा करते हैं ।
उनके अनुसार पाठ्यचर्या के ज्ञान का सम्बन्ध केवल मंजिल या समय से यात्रा के पूरी होने से नहीं है बल्कि इसका सम्बन्ध यात्रा के दौरान होने वाले अनुभवों से भी होना चाहिये । लक्ष्य तक पहुँचने के लिए प्रक्रिया एवं उपागम दोनों ठीक होने चाहिये ।
5. व्यवस्था विश्लेषण प्रतिमान- इस प्रतिमान के प्रमुख चरण निम्न हैं
1. पहले चरण में सर्वप्रथम एकीकृत आधारों पर पाठ्यचर्या का निर्माण किया जाता है फिर उसे पूरी
2. दूसरे चरण में पाठ्यचर्या की उपादेयता को लेकर विभिन्न क्षेत्रों से प्रतिक्रियाएं एकत्र की जाती हैं
3. तीसरे चरण में इन प्रतिक्रियाओं का विश्लेषण व्यवस्था पर क्रियान्वित कर दिया जाता है करके यह देखा जाता है कि पाठ्यचर्या ने व्यवस्था को किस प्रकार से प्रभावित किया है ।
4. चौथे चरण में इसकी अन्य व्यवस्थाओं से तुलना की जाती है और यह देखा जाता है कि विभिन्न व्यवस्थाओं में अन्तर उत्पन्न करने वाले बिन्दु कौन - कौन से हैं ।
5. पांचवें चरण में फिर आवश्यक बिन्दुओं को पाठ्यक्रम में शामिल करके पुनः इसके प्रभाव का अध्ययन किया जाता है ।
6. अन्त में पाठ्यचर्या को पूरे देश में लागू करने के लिए चुन लिया जाता है ।
6.संकेन्द्रिक उपागम- इस उपागम में पाठ्यचर्या को आसान से कठिन की ओर प्राइमरी से उच्च स्तर तक स्तरीकृत रूप में विकसित किया जाता है । ऐसा करते हुए छात्रों की आयु एवं योग्यताओं को भी ध्यान में रखा जाता है । इसमें छात्रों को मूर्त ज्ञान , चरण बद्ध तरीके से दिया जाता है । हर चरण पर अधिगमकर्ता का ज्ञान गहरा एवं व्यापक होता चला जाता है । उदाहरण के लिए माध्यमिक कक्षा के स्तर पर छात्रों को इतिहास का प्राथमिक ज्ञान दिया जाता है और जब बालक उच्च स्तर की कक्षाओं में पहुँच जाता है तो यही ज्ञान उसके लिए विस्तारित एवं गहरा कर दिया |
7. इकाई उपागम- यह उपागम अधिगम के परमाणुवादी प्रत्यय का विरोधी है जो यह मानती थी कि ज्ञान के छोटे - छोटे टुकड़ों को पहले के टुकड़ों के साथ जोड़ते जाइये यही अधिगम है । यह उपागम इस मान्यता पर आधारित है कि प्रभावी अधिगम तब होता है जब उद्देश्यों का भलीभांति प्रत्यक्षीकरण कर लिया जाये और क्रियात्मक प्रक्रिया का हर चरण पूर्ण अधिगम परिस्थिति का एक अंग मात्र है |
जेसली के अनुसार इकाई सूचना एवं अनुभवों का वह संगठित निकाय है जो अधिगमकर्ता के उत्पाद को प्रभावित करने के लिए डिजाइन किया जाता है ।
पाठ्यचर्या मूल्यांकन
किसी भी कक्षा की पाठ्यचर्या का मूल्यांकन उस मानदन्ड के सन्दर्भ में किया जाता है जोकि उसके सिद्धान्तों में दिये हुए होते हैं । मूल्यांकन का कुछ भाग प्रत्यक्ष हो सकता है कुछ अप्रत्यक्ष । प्रत्यक्ष मूल्यांकन में पाठ्यचर्या के प्रकरण की उपादेयता एवं प्रासंगिकता का सीधे - सीधे मूल्यांकन किया जाता जाता है
है । अप्रत्यक्ष मूल्यांकन में अधिगमकर्ता के व्यवहार में आया परिवर्तन तथा समाज के लिए उनका बोगदान जादि का मूल्यांकन किया जाता है । अप्रत्यक्ष मूल्यांकन आसान नहीं है अधिगमकर्ताओं के ऊपर पाठ्यचयां के प्रभाव का अध्ययन करना इसके लिए विभिन्न स्रोतों से व्यापक प्रदत्तों की आवश्यकता होती हैं । जैसे स्कूल परिवार , पड़ोस आदि जहाँ बालक ठहरता है और वह स्थान जहाँ वह अध्ययन के वाद काम करता है प्रदत्तों के प्रमुख स्रोत हैं । उत्तरदायित्व की भावना देशप्रेम आदि का भी यह जानने के लिए परीक्षण किया जाता है कि नागरिक के अन्दर किस सीमा तक सकारात्मक बदलाव आये हैं । इन सभी उद्देश्यों को प्राप्त करने के लिए निम्न दो उपागमों का पाठ्यवर्या के मूल्यांकन के लिए विशेष रूप से प्रयोग किया जाता है ।
1. ( Formative ) मूल्यांकन- पाठ्यचर्या मूल्यांकन के इस उपागम में छात्रों की प्रतिक्रियाओं का अच्यवन एवं उसकी व्याख्या करके पूरे वर्ष पाठ्यचर्या के विभिन्न पहलुओं का मूल्यांकन किया जाता है । मूल्यांकन को व्यापक बनाने के लिए अध्यापकों , अभिभावकों एवं आम जन मानस से भी प्रतिक्रियाएं एकत्र की जाती है । यहाँ यह जानने के लिए प्रत्यक्ष मूल्यांकन भी किया जाता है कि पाठ्यचर्या व्यक्ति व समाज पर कसे प्रभाव डाल रही है और यह इच्छित परिणाम दे रही है या नहीं । इस सम्बन्ध में जो एजेन्सियाँ काम करती है वे राज्यों के शिक्षा बोर्ड एवं उनसे जुड़े शिक्षाचिट होते हैं । निम्न कारणों से यह मूल्यांकन आसान काम नहीं है
( I ) अधिगमकर्ताओं पर किसी भी अनुभव के प्रभाव का अध्ययन इतनी छोटी अवधि में नहीं किया जा सकता ।
( ii ) मात्र एक प्रश्नावली का प्रयोग करके छात्रों , अध्यापकों या अभिभावकों की प्रतिक्रियाओं को इतनी छोटी अवधि में नहीं प्राप्त किया जा सकता ।
( iii ) पाठ्यचर्या में अधिगमकर्ताओं के सारे अनुभव शामिल होते हैं चाहे वे कक्षा में प्राप्त हों या कक्षा के बाहर , पुस्तकालय में प्राप्त हों या खेल के मैदान में । यदि हम इन सभी अनुभवों का पिसी प्रकार से अध्ययन करने में सफल हो भी जायें तो भी हम इन अनुभवों की अधिगमकर्ताओं के पिछले अनुभवों से तुलना नहीं कर सकते । प्रकार व्यवस्था विश्लेषण द्वारा अध्ययन सम्भव नहीं होगा ।
2. ( Summative ) मूल्यांकन- यह मूल्यांकन उस पाठ्यक्रम के पूरा होने के बाद किया जाता है जिसके लिए पाठ्यचर्या का निर्माण किया गया था । पाठ्यक्रम की अवधि 1-2 वर्ष से लेकर 6-8 वर्ष तक हो सकती है । इस उपागम में मुख्यतः पाठ्यक्रम की उपयोगिता को ध्यान में रखा जाता है जिसका अनुमान इस बात से लगाया जाता है कि व्यक्ति पाठ्यक्रम पूरा करने के बाद अपने व्यावहारिक एवं वास्तविक जीवन में कहाँ तक सफल हो रहा है । शिक्षा बोर्ड भी अपने द्वारा तैयार पाठ्यचर्या का हर चार या पाच वर्ष के बाद मूल्यांकन करते रहते हैं ताकि उन्हें यह पता चलता रहे कि उनके द्वारा निर्मित पाट्यचर्या व्यक्ति व समाज दोनों को कशा तक सन्तुष्ट कर पा रही है । इस प्रकार का मूल्यांकन आवश्यक भी है क्योंकि बदलते समाज की आवश्यकताजी के साथ - साथ यदि पाठ्यचर्या को बदला नहीं जायेगा तो धीरे धीरे इसका मूल्य शून्य हो जायेगा । मूल्यांकन करते समय विशेषज्ञ पाठ्यचर्या निर्माण के सिद्धान्तों एवं उपागमों को भी ध्यान में रखते हैं ।