प्रत्यक्ष
भारतीय दर्शन के सन्दर्भ
में,
प्रत्यक्ष, तीन
प्रमुख प्रमाणों में से एक है। यह प्रमाण सबसे श्रेष्ठ माना जाता है। 'प्रत्यक्ष' का
शाब्दिक अर्थ है- वह वस्तु जो आँखों के सामने हो। यहाँ 'आँख' से
तात्पर्य सभी इंद्रियों से है।
प्रत्यक्ष का अर्थ
प्रति+अक्ष होता है। प्रति का अर्थ 'सामने' और
अक्ष का अर्थ 'आँख', यानी प्रत्यक्ष का अर्थ 'आँख के सामने' होता है। यहा अक्ष का अर्थ संकुचित न लेते हुए व्यापक अर्थ
पाँच इंद्रिय (आँख, कान, नाक, जिह्वा, त्वचा) के सामने अर्थात् पाच इंद्रियों के समक्ष होने वाले
ज्ञान को प्रत्यक्ष ज्ञान कहते हैं। यह ज्ञान प्राप्ति का साधन है। न्याय दर्शन के
अनुसार प्रत्यक्ष का अर्थ इंद्रियार्थसंन्निकर्षजन्य ज्ञानम् प्रत्यक्षम् यह है।
प्रत्यक्ष ज्ञान की उत्पत्ति कुछ इस प्रकार होती है।
इनमें से आत्मा, मन और इंद्रिय का संयोग रूप जो ज्ञान का करण या प्रमाण है
वही प्रत्यक्ष है। वस्तु के साथ इंद्रिय-संयोग होने से जो उसका ज्ञान होता है उसी
को 'प्रत्यक्ष' कहते
हैं।
गौतम ने न्यायसूत्र में
कहा है कि इंद्रिय के द्वारा किसी पदार्थ का जो ज्ञान होता है, वही प्रत्यक्ष है। जैसे, यदि हमें सामने आग जलती हुई दिखाई दे अथवा हम उसके ताप का
अनुभव करें तो यह इस बात का प्रत्यक्ष प्रमाण है कि 'आग जल रही है'। इस ज्ञान में पदार्थ और इंद्रिय का प्रत्यक्ष संबंध होना
चाहिए। यदि कोई यह कहे कि 'वह किताब
पुरानी है' तो यह प्रत्यक्ष
प्रमाण नहीं है; क्योंकि इसमें जो
ज्ञान होता है, वह केवल शब्दों के
द्वारा होता है, पदार्थ के द्वारा
नहीं,
इसिलिये यह शब्दप्रमाण के अंतर्गत चला जायगा। पर यदि वही
किताब हमारे सामने आ जाय और मैली कुचैली या फटी हुई दिखाई दे तो हमें इस बात का
अवश्य प्रत्यक्ष ज्ञान हो जायगा कि 'यह किताब पुरानी है'।
प्रत्यक्ष ज्ञान किसी के
कहे हुए शब्दों द्वारा नहीं होता, इसी
से उसे 'अव्यपदेश्य' कहते हैं। प्रत्यक्ष को अव्यभिचारी इसलिये कहते हैं कि उसके
द्वारा जो वस्तु जैसी होती है उसका वैसा ही ज्ञान होता है। कुछ नैयायिक इस ज्ञान
के करण को ही प्रमाण मानते हैं। उनके मत से 'प्रत्यक्ष प्रमाण' इंद्रिय है, इंद्रिय से उत्पन्न ज्ञान 'प्रत्यक्ष ज्ञान' है। पर अव्यपदेश्य पद से सूत्रकार का अभिप्राय स्पष्ट है कि
वस्तु का जो निर्विकल्पक ज्ञान है वही प्रत्यक्ष प्रमाण है।
नवीन ग्रंथकार दोनों मतों
को मिलाकर कहते हैं कि प्रत्यक्ष ज्ञान के करण (अर्थात प्रत्यक्ष प्रमाण) तीन हैं-
(१) इंद्रिय,
(२) इंद्रिय का संबंध, और
(३) इंद्रियसंबंध से
उत्पन्न ज्ञान
पहली अवस्था में जब केवल
इंद्रिय ही करण हो तो उसका फल वह प्रत्यक्ष ज्ञान होगा जो किसी पदार्थ के पहले पहल
सामने आने से होता है। जैसे, वह
सामने कोई चीज दिखाई देती है। इस ज्ञान को 'निर्विकल्पक ज्ञान' कहते हैं। दूसरी अवस्था में यह जान पड़ता है कि जो चीज
सामने है,
वह पुस्तक है। यह 'सविकल्पक ज्ञान' हुआ। इस ज्ञान का कारण इंद्रिय का संबंध है। जब इंद्रिय के
संबंध से उत्पन्न ज्ञान करण होता है, तब यह ज्ञान कि यह किताब अच्छी है अथवा बुरी है, प्रत्यक्ष ज्ञान हुआ।
प्रत्यक्ष ज्ञान
6 प्रकार का होता है -
(१) चाक्षुष प्रत्यक्ष, जो किसी पदार्थ के सामने आने पर होता है। जैसे, यह पुस्तक नई है।
(२) श्रावण प्रत्यक्ष, जैसे, आँखें
बंद रहने पर भी घंटे का शब्द सुनाई पड़ने पर यह ज्ञान होता है कि घंटा बजा
(३) स्पर्श प्रत्यक्ष, जैसे बरफ हाथ में लेने से ज्ञान होता है कि वह बहुत ठंढी
है।
(४) रसायन प्रत्यक्ष, जैसे, फल
खाने पर जान पड़ता है कि वह मीठा है अथवा खट्टा है।
(५) घ्राणज प्रत्यक्ष, जैसे, फूल
सूँघने पर पता लगता है कि वह सुगंधित है। और
(६) मानस प्रत्यक्ष
जैसे,
सुख, दुःख, दया आदि का अनुभव।
न्याय दर्शन के अनुसार
प्रत्यक्ष ज्ञान के प्रकार
प्राचीन नैय्यायिकों के
अनुसार-
1.निर्विकल्प प्रत्यक्ष
(Indeterminate
Perception): जो ज्ञान विकल्प के बिना
होता है उसे निर्विकल्प प्रत्यक्ष कहते हैं। ( विकल्प: द्रव्य, जाति, गुण, क्रिया) यह ज्ञान प्राप्त करणे कि प्राथमिक अवस्था है।
2.सविकल्प प्रत्यक्ष (Determinate
Perception): यह ज्ञान विकल्प के सहित
होता है। निर्विकल्प प्रत्यक्ष के अनिश्चित ज्ञान से सविकल्प प्रत्यक्ष का निश्चित
ज्ञान होता है।
नव नैय्यायिकों के अनुसार-
1. लौकिक
प्रत्यक्ष (Ordinary Perception): इस प्रत्यक्ष मे इंद्रिय और अर्थ इन के संन्निकर्ष से ज्ञान
उत्पन्न होता है। इन मे संन्निकर्ष के छ: प्रकार माने गये है। संयोग, संयुक्तसमवाय, संयुक्तसमवेतसमवाय, समवाय, समवेतसमवाय, विशेषणविशेष्यभाव।
2.अलौकिक प्रत्यक्ष (extraordinary
Perception): इस प्रत्यक्ष मे तीन
प्रकार माने गये है - सामान्यलक्षण, ज्ञानलक्षण, योगज।