भारतीय दर्शन में प्रमाण
भारतीय दर्शन में प्रमाण
उसे कहते हैं जो सत्य ज्ञान करने में सहायता करे। अर्थात् वह बात जिससे किसी दूसरी
बात का यथार्थ ज्ञान हो। प्रमाण न्याय का मुख्य विषय है। 'प्रमा' नाम
है यथार्थ ज्ञान का। यथार्थ ज्ञान का जो करण हो अर्थात् जिसके द्वारा यथार्थ ज्ञान
हो उसे प्रमाण कहते हैं। गौतम ने चार प्रमाण माने हैं- प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान
और शब्द।
परिचय
प्रमाण का लक्षण
'यथार्थ अनुभव' को 'प्रमा' कहते हैं। 'स्मृति' तथा
'संशय' आदि
को 'प्रमा' नहीं
मानते। अतएव अज्ञात तत्त्व के अर्थज्ञान को 'प्रमा' कहा
है। इस अनधिगत अर्थ के ज्ञान के उत्पन्न करने वाला करण 'प्रमाण' है।
इसी को शास्त्रदीपिका में कहा है--
कारणदोषबाधकज्ञानरहितम्
अगृहीतग्राहि ज्ञानं प्रमाणम् ।
अर्थात जिस ज्ञान में
अज्ञात वस्तु का अनुभव हो, अन्य
ज्ञान से बाधित न हो एवं दोष रहित हो, वही 'प्रमाण' है।
प्रमाण के भेद
इंद्रियों के साथ संबंध
होने से किसी वस्तु का जो ज्ञान होता है वह प्रत्यक्ष है। लिंग (लक्षण) और लिंगी
दोनों के प्रत्यक्ष ज्ञान से उत्पन्न ज्ञान को अनुमान कहते हैं। किसी जानी हुई वस्तु
के सादृश्य द्वारा दूसरी वस्तु का ज्ञान जिस प्रमाण से होता है वह उपमान कहलाता
है। जैसे,
गाय के सदृश ही नील गाय होती है। आप्त या विश्वासपात्र
पुरुष की बात को शब्द प्रमाण कहते हैं।
इन चार प्रमाणों के
अतिरिक्त मीमांसक, वेदांती
और पौराणिक चार प्रकार के और प्रमाण मानते हैं—ऐतिह्य, अर्थापत्ति, संभव और अनुपलब्धि या अभाव। जो बात केवल परंपरा से प्रसिद्ध
चली आती है वह जिस प्रमाण से मानी जाती है उसको ऐतिह्य प्रमाण कहते हैं। जिस बात
से बिना किसी देखी या सुनी बात के अर्थ में आपत्ति आती हो उसके लिये अर्थापत्ति
प्रमाण हैं। जैसे, मोटा
देवदत्त दिन को नहीं खाता, यह जानकर
यह मानना पड़ता है कि देवदत्त रात को खाता है क्योंकि बिना खाए कोई मोटा हो नहीं
सकता। व्यापक के भीतर व्याप्य—अंगी के भीतर अंग—का होना जिस प्रमाण से सिद्ध होता
है उसे संभव प्रमाण कहते हैं। जैसे, सेर के भीतर छटाँक का होना। किसी वस्तु का न होना जिससे
सिद्ध होता है वह अभाव प्रमाण है। जैसे चूहे निकलकर बैठे हुए हैं इससे बिल्ली यहाँ
नहीं है। पर नैयायिक इन चारों को अलग प्रमाण नहीं मानते, अपने चार प्रमाणों के अंतर्गत मानते हैं।
भारतीय
दर्शन के विभिन्न सम्प्रदायों में प्रमाणों की संख्या भिन्न-भिन्न है। किन-किन
दर्शनों में कौन-कौन प्रमाण गृहीत हुए हैं यह नीचे दिया जाता है-
चार्वाक - केवल प्रत्यक्ष
प्रमाण
बौद्ध - प्रत्यक्ष और
अनुमान
सांख्य - प्रत्यक्ष, अनुमान और आगम (शाब्द)
पातंजल - प्रत्यक्ष, अनुमान और आगम (शाब्द)
वैशेषिक - प्रत्यक्ष और
अनुमान
रामानुज पूर्णप्रज्ञ -
प्रत्यक्ष, अनुमान और आगम
(शाब्द)
भाट्टमत में 'प्रमाण' के
छः भेद हैं-- प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान, शब्द, अर्थातपत्ति तथा अनुपलब्धि या अभाव।
प्रत्यक्ष
इनमें से आत्मा, मन और इंद्रिय का संयोग रूप जो ज्ञान का करण वा प्रमाण है
वही प्रत्यक्ष है। वस्तु के साथ इंद्रिय- संयोग होने से जो उसका ज्ञान होता है उसी
को 'प्रत्यक्ष' कहते
हैं। यह प्रमाण सबसे श्रेष्ठ माना जाता है।
गौतम ने न्यायसूत्र में
कहा है कि इंद्रिय के द्वारा किसी पदार्थ का जो ज्ञान होता है, वही प्रत्यक्ष है। जैसे, यदि हमें सामने आग जलती हुई दिखाई दे अथवा हम उसके ताप का
अनुभव करें तो यह इस बात का प्रत्यक्ष प्रमाण है कि 'आग जल रही है'। इस ज्ञान में पदार्थ और इंद्रिय का प्रत्यक्ष संबंध होना
चाहिए। यदि कोई यह कहे कि 'वह किताब
पुरानी है' तो यह प्रत्यक्ष
प्रमाण नहीं है; क्योंकि इसमें जो
ज्ञान होता है, वह केवल शब्दों के
द्वारा होता है, पदार्थ के द्वारा
नहीं,
इसिलिये यह शब्दप्रमाण के अंतर्गत चला जायगा। पर यदि वही
किताब हमारे सामने आ जाय और मैली कुचैली या फटी हुई दिखाई दे तो हमें इस बात का
अवश्य प्रत्यक्ष ज्ञान हो जायगा कि 'यह किताब पुरानी है'।
प्रत्यक्ष ज्ञान किसी के
कहे हुए शब्दों द्वारा नहीं होता, इसी
से उसे 'अव्यपदेश्य' कहते हैं। प्रत्यक्ष को अव्यभिचारी इसलिये कहते हैं कि उसके
द्वारा जो वस्तु जैसी होती है उसका वैसा ही ज्ञान होता है। कुछ नैयायिक इस ज्ञान
के करण को ही प्रमाण मानते हैं। उनके मत से 'प्रत्यक्ष प्रमाण' इंद्रिय है, इंद्रिय से उत्पन्न ज्ञान 'प्रत्यक्ष ज्ञान' है। पर अव्यपदेश्य पद से सूत्रकार का अभिप्राय स्पष्ट है कि
वस्तु का जो निर्विकल्पक ज्ञान है वही प्रत्यक्ष प्रमाण है।
नवीन ग्रंथकार दोनों मतों
को मिलाकर कहते हैं कि प्रत्यक्ष ज्ञान के करण (अर्थात प्रत्यक्ष प्रमाण) तीन हैं
(१) इंद्रिय,
(२) इंद्रिय का संबंध
और
(३) इंद्रियसंबंध से
उत्पन्न ज्ञान
पहली अवस्था में जब केवल
इंद्रिय ही करण हो तो उसका फल वह प्रत्यक्ष ज्ञान होगा जो किसी पदार्थ के पहले पहल
सामने आने से होता है। जैसे, वह
सामने कोई चीज दिखाई देती है। इस ज्ञान को 'निर्विकल्पक ज्ञान' कहते हैं। दूसरी अवस्था में यह जान पड़ता है कि जो चीज
सामने है,
वह पुस्तक है। यह 'सविकल्पक ज्ञान' हुआ। इस ज्ञान का कारण इंद्रिय का संबंध है। जब इंद्रिय के
संबंध से उत्पन्न ज्ञान करण होता है, तब यह ज्ञान कि यह किताब अच्छी है अथवा बुरी है, प्रत्यक्ष ज्ञान हुआ। यह प्रत्यक्ष ज्ञान ६ प्रकार का होता
है -
(१) चाक्षुष प्रत्यक्ष, जो किसी पदार्थ के सामने आने पर होता है। जैसे, यह पुस्तक नई है।
(२) श्रावण प्रत्यक्ष, जैसे, आँखें
बंद रहने पर भी घंटे का शब्द सुनाई पड़ने पर यह ज्ञान होता है कि घंटा बजा
(३) स्पर्श प्रत्यक्ष, जैसे बरफ हाथ में लेने से ज्ञान होता है कि वह बहुत ठंढी
है।
(४) रसायन प्रत्यक्ष, जैसे, फल
खाने पर जान पड़ता है कि वह मीठा है अथवा खट्टा है।
(५) घ्राणज प्रत्यक्ष, जैसे, फूल
सूँघने पर पता लगता है कि वह सुगंधित है। और
(६) मानस प्रत्यक्ष
जैसे,
सुख, दुःख, दया आदि का अनुभव।
अनुमान
प्रत्यक्ष को लेकर जो
ज्ञान (तथा ज्ञान के कारण) को अनुमान कहते हैं। जैसे, हमने बराबर देखा है कि जहाँ धुआँ रहता है वहाँ आग रहती है।
इसी को नैयायिक 'व्याप्ति
ज्ञान'
कहते हैं जो अनुमान की पहली सीढी़ है। हमने कहीं धूआँ देखा
जो आग कि जिस धूएँ के साथ सदा हमने आग देखी है वह यहाँ हैं। इसके अनंतर हमें यह
ज्ञान या अनुमान उत्पन्न हुआ कि 'यहाँ
आग है'। अपने समझने के लिये तो उपयुक्त तीन खंड काफी है पर
नैयायिकों का कार्य है दूसरे के मन में ज्ञान कराना, इससे वे अनुमान के पाँच खंड करते हैं जो 'अवयव' कहलाते
हैं।
(१) प्रतिरा—साध्य का
निर्देश करनेवाला अर्थात् अनुमान से जो बात सिद्ध करना है उसका वर्णन करनेवाला
वाक्य,
जैसे, यहाँ
पर आग है।
(२) हेतु—जिस लक्षण या
चिह्न से बात प्रमाणित की जाती है, जैसे, क्योंकि
यहाँ धुआँ है।
(३) उदाहरण—सिद्ध की
जानेवाली वस्तु बतलाए हुए चिह्न के साथ जहाँ देखी गई है उसा बतानेवाला वाक्य। जैसे,— जहाँ जहाँ धूआँ रहता है वहाँ वहाँ आग रहती है, जैसे 'रसोईघर
में'।
(४) उपनय—जो वाक्य
बतलाए हुए चिह्न या लिंग का होना प्रकट करे, जैसे, 'यहाँ
पर धूआँ है'।
(५) निगमन—सिद्ध की
जानेवाली बात सिद्ध हो गई यह कथन।
अतः अनुमान का पूरा रूप
यों हुआ— यहाँ पर आग है (प्रतिज्ञा)। क्योकि यहाँ धूआँ है (हेतु)। जहाँ जहाँ धूआँ
रहता है वहाँ वहाँ आग रहती है, 'जैसे
रसोई घर में' (उदारहण)।
यहाँ पर धूआँ है (उपनय)। इसीलिये यहाँ पर आग है (निगमन)। साधारणतः इन पाँच अवयवों
से युक्त वाक्य को न्याय कहते हैं।
नवीन नैयायिक इन पाँचों
अवयवों का मानना आवश्यक नहीं समझते। वे प्रमाण के लिये प्रतिज्ञा, हेतु और दृष्टांत इन्हीं तीनों को काफी समझते हैं। मीमांसक
और वेदांती भी इन्हीं तीनों को मानते हैं। बौद्ध नैयायिक दो ही मानते हैं, प्रतिज्ञा और हेतु। 'दुष्ट हेतु' को हेत्वाभास कहते हैं पर इसका प्रमाण गौतम ने प्रमाण के
अंतर्गत न कर इसे अलग पदार्थ (विषय) मानकर किया है। इसी प्रकार छल, जाति, निग्रहस्थान
इत्यादि भी वास्तव में हेतुदोष ही कहे जा सकते हैं। केवल हेतु का अच्छी तरह विचार
करने से अनुमान के सब दोष पकडे़ जा सकते हैं और यह मालूम हो सकता है कि अनुमान ठीक
है या नहीं।
उपमान
गौतम का तीसरा प्रमाण 'उपमान' है।
किसी जानी हुई वस्तु के सादृश्य से न जानी हुई वस्तु का ज्ञान जिस प्रमाण से होता
है वही उपमान है। जैसे, नीलगाय
गाय के सदृश होती है। किसी के मुँह से यह सुनकर जब हम जंगल में नीलगाय देखते हैं
तब चट हमें ज्ञान हो जाता है कि 'यह
नीलगाय है'। इससे प्रतीत हुआ कि
किसी वस्तु का उसके नाम के साथ संबंध ही उपमिति ज्ञान का विषय है। वैशेषिक और
बौद्ध नैयायिक उपमान को अलग प्रमाण नहीं मानते, प्रत्यक्ष और शब्द प्रमाण के ही अंतर्गत मानते हैं। वे कहते
हैं कि 'गो के सदृश गवय होता है' यह शब्द या आगम ज्ञान है क्योंकि यह आप्त या विश्वासपात्र
मनुष्य कै कहे हुए शब्द द्वारा हुआ फिर इसके उपरांत यह ज्ञान क्रि 'यह जंतु जो हम देखते हैं गो के सदृश है' यह प्रत्यक्ष ज्ञान हुआ। इसका उत्तर नैयायिक यह देते हैं कि
यहाँ तक का ज्ञान तो शब्द और प्रत्यक्ष ही हुआ पर इसके अनंतर जो यह ज्ञान होता है
कि 'इसी जंतु का नाम गवय है' वह न प्रत्यक्ष है, न अनुमान, न
शब्द,
वह उपमान ही है। उपमान को कई नए दार्शनिकों ने इस प्रकार
अनुमान कै अंतर्गत किया है। वे कहते हैं कि 'इस जंतु का नाम गवय हैं', 'क्योंकि यह गो के सदृश है' जो जो जंतु गो के सदृश होते है उनका नाम गवय होता है। पर
इसका उत्तर यह है कि 'जो जो
जंतु गो के सदृश्य होते हैं वे गवय हैं' यह बात मन में नहीं आती, मन में केवल इतना ही आता हैं कि 'मैंने अच्छे आदमी के मुँह से सुना है कि गवय गाय के सदृश
होता है ?'
शब्द
चौथा प्रमाण है - शब्द।
सूत्र में लिखा है कि आप्तोपदेश अर्थात आप्त पुरुष का वाक्य शब्दप्रमाण है।
भाष्यकार ने आप्तपुरुष का लक्षण यह बतलाया है कि जो साक्षात्कृतधर्मा हो, जैसा देखा सुना (अनुभव किया) हो ठीक ठीक वैसा ही कहनेवाला
हो,
वही आप्त है, चाहे वह आर्य हो या म्लेच्छ। गौतम ने आप्तोपदेश के दो भेद
किए हैं— दृष्टार्थ और अदृष्टार्थ। प्रत्यक्ष जानी हुई बातों को बतानेवाला
दृष्टार्थ और केवल अनुमान से जानी जानेवाली बातों (जैसे स्वर्ग, अपवर्ग, पुनर्जन्न
इत्यादि) को बतानेवाला अदृष्टार्थ कहलाता है। इसपर भाष्य करते हुए वात्स्यान ने
कहा है कि इस प्रकार लौकिक और ऋषि— वाक्य (वैदिक) का विभाग हो जाता है अर्थात्
अदृष्टार्थ मे केवल वेदवाक्य ही प्रमाण कोटि में माना जा सकता है। नैयायिकों के मत
से वेद ईश्वरकृत है इससे उसके वाक्य सदा सत्य और विश्वसनीय हैं पर लौकिक वाक्य तभी
सत्य माने जा सकते हैं। जब उनका कहनेवाला प्रामाणिक माना जाय। सूत्रों में वेद के
प्रामाण्य के विषय में कई शंकाएँ उठाकर उनका समाधान किया गया है। मीमांसक ईश्वर को
नहीं मानते पर वे भी वेद को अपौरुषेय और नित्य मानते हैं। नित्य तो मीमांसक शब्द
मात्र को मानते हैं और शब्द और अर्थ का नित्य संबंध बतलाते हैं। पर नैयायिक शब्द
का अर्थ के साथ कोई नित्य संबंध नहीं मानते। वाक्य का अर्थ क्या है, इस विषय में बहुत मतभेद है। मीमांसकों के मत से नियोग या
प्रेरणा ही वाक्यार्थ है—अर्थात् 'ऐसा करो', 'ऐसा न करो' यही
बात सब वाक्यों से कही जाती है चाहे साफ साफ चाहे ऐसे अर्थवाले दूसरे वाक्यों से
संबंध द्वारा। पर नैयायिकों के मत से कई पदों के संबंध से निकलनेवाला अर्थ ही
वाक्यार्थ है। परंतु वाक्य में जो पद होते हैं वाक्यार्थ के मूल कारण वे ही हैं।
न्यायमंजरी में पदों में दो प्रकार की शक्ति मानी गई है—प्रथम अभिधात्री शक्ति
जिससे एक एक पद अपने अपने अर्थ का बोध कराता है और दूसरी तात्पर्य शक्ति जिससे कई
पदों के संबंध का अर्थ सूचित होता है। शक्ति के अतिरिक्त लक्षणा भी नैयायिकों ने
मानी है। आलंकारिकों ने तीसरी वृत्ति व्यंजना भी मानी है पर नैयायिक उसे पृथक्
वृत्ति नहीं मानते। सूत्र के अनुसार जिन कई अक्षरों के अंत में विभक्ति हो वे ही
पद हैं और विभक्तियाँ दो प्रकार की होती हैं—नाम विभक्ति और आख्यात विभक्ति। इस
प्रकार नैयायिक नाम और आख्यात दो ही प्रकार के पद मानते हैं। अव्यय पद को भाष्यकार
ने नाम के ही अंतर्गत सिद्ध किया है। न्याय में ऊपर लिखे चार ही प्रमाण माने गए
हैं। मीमांसक और वेदांती अर्थापत्ति, ऐतिह्य, संभव
और अभाव ये चार और प्रमाण कहते हैं। नैयायिक इन चारों को अपने चार प्रमाणों के
अंतर्गत मानते हैं।
अर्थापत्ति
दृष्ट या श्रुत विषय की
उपपत्ति जिस अर्थ के बिना न हो, उस
अर्थ के ज्ञान को 'अर्थापत्ति' कहते हैं। जैसे--देवदत्त दिन में कुछ भी नहीं खाता, फिर भी खूब मोटा है'। इस वाक्य में 'न खाना तथापि मोटा होना' इन दोनों कथनों में समन्वय की उपपत्ति नहीं होती। अत:
उपपत्ति के लिए 'रात्रि
में भोजन करता है' यह
कल्पना की जाती है। इस कथन से यह स्पष्ट हो गया कि 'यद्यपि दिन में वह नहीं खाता, परन्तु रात्रि में खाता है'। अतएव देवदत्त मोटा है। यहाँ पर प्रथम वाक्य में उपपत्ति
लाने के लिए, 'रात्रि
में खाता है' यह कल्पना स्वयं की
जाती है। इसी को 'अर्थापत्ति' कहते हैं।
अर्थापत्ति के
भेद
यह दो प्रकार की है--'दृष्टार्थापत्ति', जैसे --ऊपर के उदाहरण में, तथा 'श्रुतार्थापत्ति' । जैसे- सुनने में आता है कि देवदत्त जो जीवित है, घर में नहीं हैं। इस से 'देवदत्त कहीं और स्थान में है' इसकी कल्पना करना 'अर्थापत्ति' है। अन्यथा 'जीवित होकर घर में नहीं रहना' इन दोनों बातों में समन्वय नहीं हो सकता।
प्रभाकर का मत है कि किसी
भी प्रमाण से ज्ञात विषय की उपपत्ति के लिए 'अर्थापत्ति' हो सकती है, केवल दृष्ट और श्रुत ही से नहीं। यह बात साधारण रूप से
प्रत्यक्ष आदि प्रमाणों से सिद्ध नहीं होता, तस्मात् 'अर्थापत्ति' का नाम का एक भिन्न 'प्रमाण' मीमांसक
मानते हैं।
अनुपलब्धि या
अभाव
अभावप्रमाण -- प्रत्यक्ष
आदि प्रमाणों के द्वारा जब किसी वस्तु का ज्ञान नहीं होता, तब 'वह वस्तु
नहीं है'
इस प्रकार उस वस्तु के 'अभाव' का
ज्ञान हमें होता है। इस 'अभाव' का ज्ञान इन्द्रियसन्निकर्ष आदि के द्वारा तो हो नहीं सकता, क्योंकि इन्द्रियसन्निकर्ष 'भाव' पदार्थों
के साथ होता है। अतएव 'अनुपलब्धि', या 'अभाव' नाम के एक ऐसे स्वतन्त्र प्रमाण को मीमांसक मानते हैं, जिसके द्वारा किसी वस्तु के 'अभाव' का
ज्ञान हो। यह तो मीमांसकों का एक साधारण मत है। किन्तु प्रभाकर इसे नहीं स्वीकार
करते। उनका कथन है कि जितने 'प्रमाण' है, सब के
अपने-अपने स्वतन्त्र 'प्रमेय' हैं, किन्तु 'अभाव' प्रमाण
का कोई भी अपना 'विषय' नहीं है। जैसे--'इस भूमि पर घट नहीं है', इस ज्ञान में यदि वहाँ घट होता, तो भूतल के समान उसका भी ज्ञान होता, किन्तु ऐसा नहीं है। फिर हम देखते हैं 'केवल भूमि', जिस
का ज्ञान हमें प्रत्यक्ष से होता है। वस्तुत: 'अभाव' का
अपना स्वरूप तो कुछ भी नही है। वह तो जहाँ रहता है, उसी आधार के साथ कहा जाता है। इसलिए यथार्थ में भूतल के
ज्ञान के अतिरिक्त 'घट नहीं
है'
इस प्रकार का ज्ञान होता ही नहीं। अतएव 'अभाव' अधिकरण
स्वरूप ही है। इस का पृथक् अस्तित्व नहीं है।
सम्भवप्रमाण
कुमारिल ने 'सम्भव' की
चर्चा की है। जैसे--'एक सेर
दूध में आधा सेर दूध तो अवश्य है'; अर्थात्
एक सेर होने में सन्देह हो सकता है, किन्तु उसके आधा सेर होने में तो कोई भी सन्देह नहीं हो
सकता। इसे ही 'सम्भव' का नाम का प्रमाण 'पौराणिकों' ने
माना है। कुमारिल ने इस 'अनुमान' के अन्तर्गत माना है।
ऐतिह्यप्रमाण
'एतिह्य' का भी उल्लेख कुमारिल ने किया है। जैसे 'इस वट के वृक्ष पर भूत रहता है'। यह वृद्ध लोग कहते आये हैं। अत: यह भी एक स्वतन्त्र
प्रमाण है। परन्तु इस कथन की सत्यता का निर्णय नहीं हो सकता, अतएव यह प्रमाण नहीं है। यदि प्रमाण है तो यह 'आगम' के
अन्तर्भूत है। किन्तु इन दोनों को अन्य मीमांसकों की तरह कुमारिल ने भी स्वीकार
नहीं किया।
प्रतिभाप्रमाण
'प्रतिभा' अर्थात् 'प्रातिभज्ञान' सदैव सत्य नहीं होता, अतएव इसे भी मीमांसक लोग प्रमाण के रूप में नहीं स्वीकार
करते।
ऊपर के विवरण से स्पष्ट हो
गया होगा कि प्रमाण ही न्यायशास्त्र का मुख्य विषय है। इसी से 'प्रमाणप्रवीण', 'प्रमाणकुशल' आदि शब्दों का व्यवहार नैयायिक या तार्किक के लिये होता है।
प्रमेय
प्रमाण का विषय (जिसे
प्रमाणित किया जाय) प्रमेय कहलाता है। ऐसे विषय न्याय के अन्तर्गत बारह गिनाए गए
हैं—
(१) आत्मा—सब वस्तुओं
का देखनेवाला, भोग करनेवाला, जाननेवाला और अनुभव करनेवाला।
(२) शरीर—भोगो का आयतन
या आधार।
(३) इंद्रियाँ—भोगों
के साधन।
(४) अर्थ—वस्तु जिसका
भोग होता है।
(५) बुद्धि—भोग।
(६) मन—अंतःकरण
अर्थात् वह भीतरी इंद्रिय जिसके द्वारा सब वस्तुओं का ज्ञान होता है।
(७) प्रवृत्ति—वचन, मनऔर शरीर का व्यापार।
(८) दोष—जिसके कारण
अच्छे या बुरे कामों में प्रवृत्ति होती है।
(९)
प्रेत्यभाव—पुनर्जन्म।
(१०) फल—सुख दुःख का
संवेदन या अनुभव।
(११) दुःख—पीडा़, क्लेश।
(१२) अपवर्ग—दुःख से
अत्यंत निवृत्ति या मुक्ति।
इस सूची से यह न समझना
चाहिए कि इन वस्तुओं के अतिरिक्त और प्रमेय (प्रमाण के विषय) हो ही नहीं सकते।
प्रमाण के द्वारा बहुत सी बातें सिद्ध की जाती हैं। पर गौतम ने अपने सूत्रों में
उन्हीं बातों पर विचार किया है जिनके ज्ञान से अपवर्ग या मोक्ष की प्राप्ति हो।
न्याय में इच्छा, द्वेष, प्रयत्न, सुख
दुःख और ज्ञान ये आत्मा के लिंग (अनुमान के साधन चिह्न या हेतु) कहे गए हैं, यद्यपि शरीर, इंद्रिय और मन से आत्मा पृथक् मानी गई है। वैशेषिक में भी
इच्छा,
द्वेष सुख, दुःख
आदि को आत्मा का लिंग कहा है। शरीर, इंद्रिय और मन से आत्मा के पृथक् होने के हेतु गौतम ने दिए
हैं। वेदांतियों के समान नैयायिक एक ही आत्मा नहीं मानते, अनेक मानते हैं। सांख्यवाले भी अनेक पुरुष मानते हैं पर वे
पुरुष को अकर्ता और अभोक्ता, साक्षी
वा द्रष्टा मात्र मानते हैं। नैयायिक आत्मा को कर्ता, भोक्ता आदि मानते हैं। संसार को रचनेवाली आत्मा ही ईश्वर
है। न्याय में आत्मा के समान ही ईश्वर में भी संख्या, परिमाण, पृथक्त्व, संयोग, विभाग, इच्छा, बुद्धि
प्रयत्न ये गुण माने गए हैं पर नित्य करके। न्यायमंजरी में लिखा है कि दुःख, द्वेष और संस्कार को छोड़ और सब आत्मा के गुण ईश्वर में
हैं।
बहुत से लोग शरीर को
पाँचों भूतों से बना मानते हैं पर न्याय में शरीर केवल पृथ्वी के परमाणुओं से घटित
माना गया है। चेष्टा, इंद्रिय
और अर्थ के आश्रय को शरीर कहते हैं। जिस पदार्थ से सुख हो उसके पाने और जिससे दुःख
हो उसे दूर करने का व्यापार चेष्टा है। अतः शरीर का जो लक्षण किया गया है उसके
अंतर्गत वृक्षों का शरीर भी आ जाता है। पर वाचस्पति मिश्र ने कहा है कि यह लक्षण
वृक्षशरीर में नहीं घटता, इससे
केवल मनुष्यशरीर का ही अभिप्राय समझना चाहिए। शंकर मिश्र ने वैशेषिक सूत्रोपस्कार
में कहा है कि वृक्षों को शरीर है पर उसमें चेष्टा और इंद्रियाँ स्पष्ट नहीं दिखाई
पड़तीं इससे उसे शरीर नहीं कह सकते। पूर्वजन्म में किए कर्मों के अनुसार शरीर
उत्पन्न होता है। पाँच भूतों से पाँचों इंद्रियों की उत्पत्ति कही गई है।
घ्राणेंद्रिय से गंध का ग्रहण होता है, इससे वह पृथ्वी से बनी है। रसना जल से बनी है क्योकि रस जल
का ही गुण है। चक्षु तेज से बना हैं क्योकि रूप तेज का ही गुण है। त्वक् वायु से
बना है क्योंकि स्पर्श वायु का गुण है। श्रोत्र आकाश से बना है क्योंकि शब्द आकाश
का गुण है। बौद्धों के मत से शरीर में इंद्रियों के जो प्रत्यक्ष गोलक देखे जाते
हैं उन्हीं को इंद्रियाँ कहते हैं। (जैसे, आँख की पुतली, जीभ इत्यादि); पर नैयायिकों के मत से जो अंग दिखाई पड़ते हैं वे इंद्रियों
के अधिष्ठान मात्र हैं, इंद्रियाँ
नहीं हैं। इंद्रियों का ज्ञान इँद्रियों द्वारा नहीं हो सकता। कुछ लोग एक ही त्वग्
इंद्रिय मानते हैं। न्याय में उनके मत का खंडन करके इंद्रियों का नानात्व स्थापित
किया गया है। सांख्य में पाँच कर्मेद्रियाँ और मन लेकर ग्यारह इंद्रियाँ मानी गई
हैं। न्याय में कर्मेंद्रियाँ नहीं मानी गई हैं पर मन एक करण और अणुरूप माना गया
है। यदि मन सूक्ष्म न होकर व्यापक होता तो युगपद ज्ञान संभव होता, अर्थात् अनेक इंद्रियों का एक क्षण में एक साथ संयोग होने
से उन सबके विषयों का एक साथ ज्ञान होता। पर नैयायिक ऐसा नहीं मानते। गंध, रस, रूप, स्पर्श और शब्द ये पाँचों भूतों के गुण और इंद्रियों के
अर्थ या विषय़ हैं।
न्याय में बुद्धि को ज्ञान
या उपलब्धि का ही दूसरा नाम कहा है। सांख्य में बुद्धि नित्य कही गई है पर न्याय
में अनित्य। वैशेषिक के समान न्याय भी परमाणुवादी है अर्थात् परमाणुओं के योग से
सृष्टि मानता है।
प्रमेयों के संबंध में
न्याय और वैशेषिक के मत प्रायः एक ही हैं इससे दर्शन में दोनों के मत न्याय मत कहे
जाते हैं। वात्स्यायन ने भी भाष्य में कह दिया है कि जिन बातों को विस्तार-भय से
गौतम ने सूत्रों में नहीं कहा है उन्हें वैशेषिक से ग्रहण करना चाहिए।
ऊपर जो कुछ लिखा गया है
उससे प्रकट हो गया होगा कि गौतम का न्याय केवल विचार या तर्क के नियम निर्धारित
करनेवाला शास्त्र नहीं है बल्कि प्रमेयों का भी विचार करनेवाला दर्शन है।
पाश्चात्य लाजिक (तर्कशास्त्र) से यही इसमें भेद हैं। लाजिक, दर्शन के अंतर्गत नहीं लिया जाता पर न्याय, दर्शन है। यह अवश्य है कि न्याय में प्रमाण या तर्क की
परीक्षा विशेष रूप से हुई है।
प्रामाण्यवाद का
महत्व
न्यायशास्त्र तथा
मीमांसाशास्त्र में 'प्रामाण्यवाद' सब से कठिन विषय कहा जाता है। मिथिला में विद्वन्मण्डली में
प्रसिद्ध है कि १४वीं सदी में एक समय एक बहुत बड़े विद्वान् और कवि किसी अन्य
प्रान्त से मिथिला के महाराज की सभा में आये। उनकी कवित्वशक्ति और विद्वत्ता से
सभी चकित हुए। वह मिथिला में रह कर 'प्रामाण्यवाद' का विशेष अध्ययन करने लगे। कुछ दिनों के पश्चात् महाराज ने
उनसे एक दिन नवीन कविता सुनाने के लिए कहा, तो बहुत देर सोचने के बाद उन्होने एक कविता की रचना की--
नम:
प्रामाण्यवादाय मत्कवित्वापहारिणे'।
इसकी दूसरी पंक्ति की
पूर्ति करने में उन्होंने अपनी असमर्थता प्रकट की। वास्तव में 'प्रामाण्यवाद' बहुत कठिन है और इसके अध्ययन करने वालों का ध्यान और कहीं
नहीं जा सकता है।
तर्कशास्त्र, भारतीय
तर्कशास्त्र
भारतीय दर्शन
में प्रमाण