स्वामी विवेकानंद के शैक्षिक एवं सामाजिक चिंतन की वर्तमान परिपेक्ष्य में सार्थकता
डॉ० गीता दहिया प्राचार्य, नेशनल टी. टी. कॉलेज फॉर गर्ल्स, अलवर, राजस्थान, भारत ।
1. प्रस्तावना
भारत को आज एक युवा राष्ट्र के रूप में पहचाना जा रहा है ऐसे में चिर युवा व्यक्तित्व स्वामी विवेकानन्द ही उसकी प्रेरणा का सर्वोत्तम स्त्रोत हो सकता है। स्वामी विवेकानन्द ने हिन्दू संस्कृति को उस समय विश्व मान्यता दिलवाई जब भारतीयों को आत्म विश्वास रसातल में गया हुआ था। स्वामी विवेकानन्द के आध्यात्मिक प्रवाह के साथ-साथ राष्ट्रीयता के शंखनाद ने भारत के स्वतन्त्रता आन्दोलन में नई जान फूंक दी थी। देश के पुनः निर्माण का श्री गणेश उन्होंने किया, वह आज भी जारी है। स्वामी विवेकानन्द की जयन्ती पर आवश्यकता यह मनन करने की है कि हम उनके दिखाए मार्ग पर कितना आगे बढ़ पाये हैं ।
स्वामी विवेकानन्द जी भारतीय और विश्व इविहास के उन महान् व्यक्तियों में से है जो राष्ट्रीय जीवन को एक नई दिशा प्रदान करने में एक अमृत धारा की भांति है। स्वामी जी के व्यक्तित्व और विचारो में भारतीय संस्कृति परम्परा के सर्वश्रेष्ठ तत्व निहित थे । उनका जीवन भारत के लिए वरदान था। स्वामी जी के व्यक्तित्व और विचारो में भारत के लिए वरदान था । स्वामी जी का सम्पूर्ण जीवन माँ भारती और भारतवासियों की सेवा हेतु समर्पित था उनका व्यक्तित्व विशाल समुद्र की भाती था। वे आधुनिक भारत के एक आर्दश प्रतिनिधि होने के अतिरिक्त वैदिक धर्म एवं संस्कृति के समस्त स्वरूपों के उज्जवल प्रतीक थे। प्रखर बुद्धि के स्वामी और तर्क विचारो से सुसज्जित जलते दीपक की तरह प्रकाशमान थे। उनके अंतःकरण में अलोकित प्रसफुटित ज्वाला प्रज्जवलित होती है। "उनके विचार शिक्षा और दर्शन इतने प्रभावी है कि स्वामी जी के द्वारा दिये गये सैकड़ो व्यक्तव्यों में से कोई एक व्यक्तव्य महान् क्रान्ति करने के लिए, व्यक्ति के जीवन में आमूल परिवर्तन करने में समर्थ हैं।"
स्वामी विवेकानन्द क्रान्ति की नई छवि को गढ़ने वाले विचारक थे। वे समाजोद्धार को आत्मोद्धार से जोडकर देखते थे। यही उनकी क्रान्ति को एक नया आयाम देता है, "जीवन में मेरी एक मात्र अभिलाषा यही है कि ऐसे चक्र का प्रवर्तन कर दूँ, जो उच्च एवं श्रेष्ठ विचारो को सबके द्वारो तक पहुँचा दें, और फिर स्त्री-पुरूष अपने भाग्य का निर्णय स्वयं कर ले। हमारे पूर्वजों तथा अन्य देशों ने भी जीवन के महत्त्वपूर्ण प्रश्नों पर क्या विचार किया हैं, यह सर्वसाधारण को जानने दो। विशेष कर उन्हें यह देखने दो कि और लोग इस समय क्या कर रहे है और तब उन्हे अपना निर्णय करने दे |
उठो, साहसी बनो, वीर्यवान होओ। सब उत्तरदायित्व अपने कन्धो पर लो। यह याद रखो कि तुम स्वयं अपने भाग्य के निर्माता हो । तुम जो कुछ बल या सहायता चाहो, सब तुम्हारे ही भीतर विद्यमान है। अतएव इस ज्ञानरूप शक्ति के सहारे तुम बल प्राप्त करो और अपने हाथों अपना भविष्य गढ़ डालो।
2. स्वामी विवेकानन्द जी का जीवन परिचय
स्वामी विवेकानन्द जी का जन्म 12 जनवरी सन् 1863 में एक बंगाली कायस्थ परिवार में हुआ था। इनके पिता श्री विश्वनाथ दत्त कलकत्ता के उच्च न्यायालय में एटर्नी (वकील) थे। इनका वास्तविक नाम नरेन्द्रनाथ दत्त था । उनके घर का वातावरण धार्मिक था, इसलिए स्वामी जी को भी धर्म-कर्म, पूजा-पाठ में विशेष रूचि थी। उनकी माँ भुवनेश्वर देवी भी बड़ी बुद्धिमती, गुणवती, धर्मपरायण एवं परोपकारी थी। वह उन्हें रामायण, महाभारत तथा पुराण सुनाया करती थी इन धार्मिक चर्चाओं का उनके ऊपर अत्यधिक प्रभाव पड़ा और वे बड़े महात्मा बन गये उनकी महानता, विद्वता एवं धर्मनिष्ठा किसी से छिपी नहीं है। सन् 1893 ई. में विश्व धर्म सम्मेलन में भाग लेने वे अमेरिका गये और वहाँ जाने से पूर्व उन्होंने अपना नाम विवेकानन्द रखा। उन्होंने शिक्षा को अपने देश की गरीबी, दरिद्रता एवं दुख का कारण बताया और भारत के नागरिको की शिक्षा कैसी हो इस पर विचार व्यक्त किया। विदेशो में घूम-घूम कर हिन्दू धर्म का प्रचार कर देश एवं स्वयं का नाम कमाया। 4 जुलाई सन् 1902 में यह महात्मा संसार में हिन्दु धर्म को फिर से प्रतिष्ठित करके अल्पायु में ही परलोक सिधार गये।
3. स्वामी विवेकानन्द जी के अनुसार
कोई व्यक्ति किसी दूसरे व्यक्ति को नहीं सिखाता, प्रत्यके व्यक्ति अपने आप सीखता हैं। बाहरी शिक्षक तो केवल सुझाव ही प्रस्तुत करते हैं जिनसे भीतरी, शिक्षक को समझने और सीखने की प्रेरणा मिलती है। स्वामी जी ने उस समय की शिक्षा को निरर्थक बताते हुए कहा- " आप उस व्यक्ति को शिक्षित मानते हैं जिसने कुछ परिक्षाएँ पास कर ली हो तथा अच्छे भाषण दे सकता हो । पर वास्तविकता यह है कि जो शिक्षा जनसाधारण को जीवन संघर्ष के लिए तैयार नहीं कर सकती वो चरित्र-निर्माण नहीं कर सकती, जो समाज सेवा की भावना को पैदा नहीं कर सकती तथा जो शेर जैसा साहस पैदा नहीं कर सकती, ऐसी शिक्षा से क्या लाभ है।"
उनके इस कथन से स्पष्ट है कि शिक्षा के प्रति उनका व्यापक दृष्टिकोण हैं अतः स्वामी जी सैद्धान्तिक शिक्षा के पक्ष में नहीं थे, वे व्यावहारिक शिक्षा को व्यक्ति के लिए उपयोगी मानते थे । व्यक्ति की शिक्षा ही उसे भविष्य के लिए तैयार करती है। इसलिए शिक्षा में उन तत्वो का होना अत्यन्त आवश्यक है जो उसके भविष्य के लिए महत्त्वपूर्ण हो। इस संबंध में उन्होंने भारतीयों को समय-समय पर सचेत करते हुए कहा- "तुमको कार्य के प्रत्येक क्षेत्र को व्यवहारिक बनाना पडेगा । सिद्धान्तो के ढेरो ने सम्पूर्ण देश का विनाश कर दिया है। 4 स्वामी जी शिक्षा द्वारा लौकिक एवं पारलौकिक दोनो जीवन के लिए तैयार करना चाहते है। लौकिक दृष्टि से शिक्षा के सम्बन्ध में उन्होंने कहा है कि "हमे ऐसी शिक्षा चाहिए, जिससे चरित्र का गठन हो मन का बल बढे, बुद्धि का विकास हो और व्यक्ति स्वावलम्बी बने । पारलौकिक दृष्टि से उन्होंने कहा है कि "शिक्षा मनुष्य की अन्तर्निहित पूर्णता की अभिव्यक्ति हैं ।"
4. स्वामी विवेकानन्द का शिक्षा दर्शन
स्वामी विवेकानन्द जी ऐसे परम्परागत व्यवसायिक तकनीकी शिक्षा शास्त्री न थे जिन्होने शिक्षा का क्रमबद्ध सुनिश्चित विवरण दिया हो। वह मुख्यतः एक दार्शनिक, देशभक्त, समाज सुधारक और दिव्यात्मा थे जिनका लक्ष्य अपने देश और समाज की खोयी हुई जनता को जगाना तथा उसे नव निर्माण के पथ पर अग्रसर करना था । शिक्षा दर्शन के क्षेत्र में स्वामी जी की तुलना विश्व के महानतम शिक्षा शास्त्रियों प्लेटो, रूसो और बटैंड रसेल से की जा सकती है क्योंकि उन्होंने शिक्षा के कुछ सिद्धान्त प्रस्तुत किए है जिनके आधार पर विशाल ज्ञान का भवन निर्माण तकनीकी रूप से कर सकते हैं।
स्वामी विवेकानन्द की नस नस में भारतीयता तथा आध्यात्मिकता कूट-कूट कर भरी हुई थी। अतः उनके शिक्षा दर्शन का आधार भी भारतीय वेदान्त या उपनिषद् ही रहे उनका मुख्य उद्देश्य था मानव का नव निर्माण क्योंकि व्यक्ति समाज का मूल आधार है। व्यक्ति के सर्वार्गीण उत्थान से समाज का सर्वार्गीण उत्थान होता है और व्यक्ति के पतन से समाज का पतन होता है स्वामी जी ने अपने शिक्षा दर्शन में व्यक्ति और समाज दोनो के समरस संतुलित विकास को ही शिक्षा का प्रमुख लक्ष्य माना, स्वामी जी के अनुसार वेदान्त दर्शन में प्रत्येक बालक में असीम ज्ञान और विकास की सम्भावना है परन्तु उन्हें इन शक्तियों का पता नहीं है। शिक्षा द्वारा उसे इनकी प्राप्ति करवाई जाती है तथा उनके उत्तरोतर विकास में छात्र की सहायता की जाती है स्वामी जी वेदांती थे इसलिए वे मनुष्य को जन्म से पूर्ण मानते थे और इस पूर्णता की अभिव्यक्ति को ही शिक्षा कहते थे स्वामी जी के शब्दों में "मनुष्य की अन्तर्निहित पूर्णता को व्यक्त करना ही शिक्षा है।" स्वामी विवेकानन्द शिक्षा के विषय में कहते है कि सच्ची शिक्षा वह है जिससे मनुष्य की मानसिक शक्तियों का विकास हो वह शब्दों को रटना मात्र नहीं है। वह व्यक्ति की मानसिक शक्तियों का ऐसा विकास है, जिससे वह स्वयंमेव स्वतंत्रतापूर्वक विचार कर सही निर्णय कर सकें।
इक्कसवीं शब्ताबदी के बदलते परिवेश में जहाँ सूचना और प्रौद्योगिका का युग चल रहा हैं ऐसे में स्वामी जी के चिन्तन को अपनाना आवश्यक हैं। स्वामी जी शिक्षा के वर्तमान रूप को अभावात्मक बताते थे जिनके विद्यार्थियों को अपनी संस्कृति का ज्ञान नहीं उन्हें जीवन के वास्तविक मूल्यों का पाठ नहीं पढ़ाया जा सकता तथा उनमें श्रद्धा का भाव भी नहीं पनपता है। उनके अनुसार भारत के पिछडेपन के लिए वर्तमान शिक्षा पद्धति ही उत्तरदायी है यह शिक्षा न तो उत्तम जीवन जीने की तकनीक प्रदान करती है और न ही बुद्धि का नैसर्गिक विकास करने में सक्षम हैं। स्वामी जी ने आधुनिक शिक्षा पद्धति की आलोचना करते हुए लिखा हैं- "ऐसा प्रशिक्षण जो नकारात्मक पद्धति पर आधारित हो, मृत्यु से भी बुरा हैं ।" स्वामी विवेकानन्द भारतीयों के लिए पाश्चात्य दृष्टिकोण से प्रभावित शिक्षा पद्धति के स्थान पर भारतीय गुरुकुल पद्धति को श्रेष्ठ मानते थे जिसमें विद्यार्थियों तथा शिक्षकों में निकटता के संबंध तथा सम्पर्क रह सके और विद्यार्थियों में श्रद्धा, पवित्रता, ज्ञान, धैर्य, विश्वास, विनम्रता, आदर आदि गुणों का विकास हो सकें स्वामी जी भारतीय शिक्षा पाठ्यक्रम में दर्शनशास्त्र एवं धार्मिक ग्रंथों के अध्ययन को भी आवश्यक मानते थे वे ऐसी शिक्षा के समर्थक थे जो संकीर्ण मानसिकता तथा भेदभाव साम्प्रदायिकता के दोषों से मुक्त हो स्वामी विवेकानन्द के अनुसार शिक्षा का मूल उद्देश्य, जिसमें व्यक्ति का सर्वागीण विकास हो । उत्तम चरित्र, मानसिक शक्ति और बौद्धिक विकास हो, जिससे व्यक्ति पर्याप्त मात्रा में धन अर्जित कर सके और आपात काल के लिए धन संचय कर सके।
4.1 शिक्षा दर्शन के आधारभुत सिद्धान्त स्वामी विवेकानन्द के शिक्षा दर्शन के आधारभूत सिद्धान्त निम्नलिखित हैं-
- शिक्षा ऐसी हो जिससे बालक का शारीरिक, मानसिक एवं आत्मिक विकास हो सके।
- शिक्षा ऐसी हो जिससे बालक के चरित्र का निर्माण हो, मन का विकास हो, बुद्धि विकसित हो तथा बालक आत्मनिर्भर बने। बालक एवं बालिका को समान शिक्षा देनी चाहिए। धार्मिक शिक्षा, पुस्तकों द्वारा न देकर आचरण एवं संस्कारों द्वारा देनी चाहिए।
- शिक्षा से बालक के चरित्र का गठन हो, मन का बल बढ़े तथा बुद्धि विकसित हो जिससे वह अपने पैरों पर खड़ा हो जाये ।
- शिक्षा बालक में आत्मिक निष्ठा तथा श्रद्धा विकसित करें एवं उसमें आत्मत्याग की प्रगति करके पूर्णता की अभिव्यक्ति करे ।
- पाठ्यक्रम में लौकिक एवं पारलौकिक दोनों प्रकार के विषयों को स्थान देना चाहिए ।
- शिक्षा, गुरू गृह में प्राप्त की जा सकती है।
- शिक्षक एवं छात्र सबंधं अधिक से अधिक निकट का होना चाहिए ।
- सर्वसाधारण में शिक्षा का प्रचार एवं प्रसार किया जाना चाहिए । देश की प्रगति के लिए तकनीकी शिक्षा की व्यवस्था की जाए।
- मानवीय एवं राष्ट्रीय शिक्षा परिवार से ही शुरू करनी 2/4
5. शिक्षा के उद्देश्य
स्वामी विवेकानन्द के अनुसार शिक्षा के उद्देश्य निम्नलिखित होने चाहिए- पूर्णता को प्राप्त करने का उद्देश्य स्वामी जी के अनुसार शिक्षा का प्रथम उद्देश्य अन्तर्निहित पूर्णता को प्राप्त करना हैं। उनके अनुसार लौकिक तथा आध्यात्मिक सभी ज्ञान मनुष्य के मन में पहले से ही विद्यमान रहते हैं। इस पर पडे आवरण को उतार देना ही शिक्षा हैं इस लिए शिक्षा ऐसी हो जिससे मनुष्य के अन्तर्निहित ज्ञान अथवा पूर्णता की अभिव्यक्ति हो सके।
- शारीरिक एवं मानसिक विकास का उद्देश्य विवेकानन्द जी के अनुसार शिक्षा का दूसरा उद्देश्य बालक का शारीरिक एवं मानसिक विकास है। शारीरिक उद्देश्य पर उन्होंने इस लिए बल दिया जिससे आज के बालक भविष्य में निर्भिक एवं योद्धा के रूप में गीता का अध्ययन करके देश की उन्नति कर सकें। मानसिक उद्देश्य पर बल देते हुए उन्होंने बताया कि हमें ऐसी शिक्षा की आवश्यकता है जिसे प्राप्त करके मनुष्य अपने पैरो पर खड़ा हो जाये।
- नैतिक तथा आध्यात्मिक विकास का उद्देश्य- स्वामी जी का विश्वास था कि किसी देश की महानता केवल उसके संसदीय कार्यों से नहीं होती अपितु उसके नागरिको की महानता से होती है और नागरिकों को महान बनाने के लिए उनका नैतिक तथा आध्यात्मिक विकास परम आवश्यक है अतः शिक्षा को नैतिक एवं आध्यात्मिक विकास पर बल देना चाहिए।
- आत्मविश्वास तथा श्रद्धा एवं आत्मत्याग की भावना का उददेश्य स्वामी जी ने आजीवन इस बात पर बल दिया कि अपने ऊपर विश्वास रखना, श्रद्धा तथा आत्मत्याग की भावना को विकसित करना शिक्षा का महत्त्वपूर्ण उद्देश्य है। उन्होंने अकादमिक अनुसंधान और विकास का अंतर्राष्ट्रीय जर्नल।
- लिखा है- "उठो! जागो और उस समय तक बढ़ते रहो जब तक कि चरम उद्देश्य की प्राप्ति न हो जाये।"
- विभिन्नता मे एकता की खोज का उद्देश्य- स्वामी जी के अनुसार शिक्षा का मुख्य उद्देश्य विभिन्नता में एकता की खोज करना है। उन्होंने बताया कि आध्यात्मिक तथा भौतिक जगत एक ही है अतः शिक्षा ऐसी हो जो बालक को विभिन्नता में एकता की अनुभूति करना सीखाए ।
धार्मिक विकास का उद्देश्य स्वामी जी चाहते थे कि प्रत्येक व्यक्ति उस सत्य एवं धर्म को मालूम कर सके जो उसके अन्दर छिपा हुआ है। इसके लिए उन्होंने मन तथा हृदय के प्रशिक्षण पर बल दिया और बताया कि शिक्षा ऐसी होनी चाहिए जिसे प्राप्त करके बालक अपने जीवन को पवित्र बना सके तथा उसमें आज्ञापालन, समाजसेवा एवं महापुरूषों और सन्तों के अनुकरणीय आदर्शों को अपनाने की क्षमता विकसित हो जाये।
6. पाठ्यक्रम स्वामी जी के अनुसार
पाठ्यक्रम स्वामी जी के अनुसार जीवन का चरम लक्ष्य आध्यात्मिक विकास है इसलिए उन्होंने पाठ्यक्रम के अन्तर्गत उन सभी विषयों को सम्मिलित किया जिनके अध्ययन से आध्यात्मिक उन्नति के साथ-साथ भौतिक उन्नति भी हो सके। स्वामी जी ने आध्यात्मिक पूर्णता के लिए धर्म, दर्शन, पुराण, उपनिषद, साधु-संगत, उपदेश तथा कीर्तन और लौकिक समृद्धि के लिए भाषा, भूगोल, राजनीति, अर्थशास्त्र, विज्ञान, मनोविज्ञान, कला, व्यावसायिक विषय, कृषि, प्रावैधिक विषय खेल-कूद तथा व्यायाम आदि विषयों को पाठ्यक्रम में सम्मिलित करने पर जोर दिया ।
- शिक्षण पद्धति - स्वामी जी ने सैद्धान्तिक शिक्षा का खण्डन करते हुए व्यावहारिक शिक्षा पर बल दिया और भारत की उसी प्राचीन आध्यात्मिक शिक्षण पद्धति को अपनाने पर बल दिया जिसमें गुरु और शिष्य के सम्बन्ध अत्यन्त घनिष्ठ रहते है।
- बालक का स्थान- फ्रोबेल की भाँति स्वामी जी ने भी बालक को शिक्षा का केन्द्र बिन्दु माना तथा बताया कि बालक लौकिक तथा आध्यात्मिक सभी प्रकार के ज्ञान का भण्डार होता हैं। इसलिए बालक को स्वयं विकसित होने का सुझाव देते हुए कहा- "अपने अन्दर जाओ और उपनिषदों को अपने में से बाहर निकालो। तुम सबसे महान् पुस्तक हो जो कभी थी अथवा होगी। जब तक अन्तरात्मा नहीं खुलती, समस्त बाह्य शिक्षण व्यर्थ है ।"
- शिक्षक का स्थान - स्वामी जी को स्वयं शिक्षा में विश्वास था। वे कहते थे कि हम में से प्रत्येक व्यक्ति अपना स्वयं शिक्षक हैं। अतः शिक्षक के स्थान पर प्रकाश डालते हुए स्वामी जी कहते हैं कि "शिक्षक एक दार्शनिक, मित्र तथा पथ-प्रदर्शक है जो बालक को अपने ढंग से अग्रसर होने के लिए सहायता प्रदान करता है।"
जन साधारण की शिक्षा स्वामी जी ने तत्कालीन भारतीय समुदाय की आर्थिक दृष्टि से हीन दशा को सुधारने के लिए जन साधारण की शिक्षा पर बल दिया और कहा- "मैं जन-साधारण की अवहेलना करना महान् राष्ट्रीय पाप समझता हूँ। यह हमारे पतन का मुख्य कारण है। जब तक भारत की सामान्य जनता को एक बार फिर उपयुक्त शिक्षा, अच्छा भोजन तथा अच्छी सुरक्षा नहीं प्रदान की जायेगी तब तक प्रत्येक राजनीति बेकार सिद्ध होगी।" देश की वर्तमान व भविष्य में आने वाली परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए हमें अपनी वर्तमान शिक्षा प्रणाली में महत्त्वपूर्ण परिवर्तन करने की महत्ती आवश्यकता है। हमें ऐसी शिक्षा की आवश्यकता है जो समय के अनुकूल हो।
7. विवेकानन्द का सामाजिक चिंतन
एक बार विवेकानन्द जी ने घोषणा की थी. "मैं समाजवादी हूँ इसलिए नहीं कि मैं इसे पूर्ण रूप से निर्दोष व्यवस्था समझता हूँ, बल्कि इसलिए कि आधी रोटी अच्छी हैं, कुछ नहीं से।" समाजशास्त्री डॉ. वी. पी. वर्मा के अनुसार, "विवेकानन्द समाजवादी इसलिए थे कि उन्होंने राष्ट्र के समस्त नागरिकों के लिए समान अवसर के सिद्धान्त का समर्थन किया था। उनमें यह समझने की ऐतिहासिक दृष्टि थी कि भारतीय इतिहास में दो उच्च जातियों ब्राह्मणों व क्षत्रियों का आधिपत्य रहा है, ब्राह्मणों ने गरीब जनता को जटिल धार्मिक क्रियाकलापो व अनुष्ठानों में जकड़ रखा है और क्षत्रियों ने उनका आर्थिक व राजनैतिक रूप से शोषण किया है। वे रूस के क्रान्तिकारी विचारक प्रिंस क्रोपोटिलिन से मिले। समाजवादी विचारो ने उनके मनमस्तिष्क पर जर्बदस्त प्रभाव डाला और उन्होंने स्वयं को समाजवादी कहना शुरू कर दिया ।
इनकी रचनाओं में सामाजिक समानता का जो समर्थन देखने को मिलता है वह प्रबल पुरातनवाद तथा ब्राह्मणों की स्मृतियों में व्याप्त सामाजिक ऊँच-नीच के सिद्धान्त का प्रबल प्रतिवाद है। स्वामी जी ने स्वयं भारत भ्रमण के समय अपनी आँखो में भयानक निर्धनता, अज्ञानता, बुभुक्षितः नग्न बच्चे, अर्द्धनग्न स्त्री-पुरुष, निर्धन एवं निरक्षर ग्रामीण, अवैज्ञानिक खेती, सिंचाई के साधनों का अभाव, गॉवों में अस्वच्छता, अत्यंत निम्न जीवन स्तर धार्मिक आडम्बर, अन्धविश्वास, सामाजिक कुरीतियों आदि के रूप में विपन्न भारत का दर्शन किया। लोग निर्धनता एवं अज्ञानता के कारण पशुवत जीवन व्यतीत कर रहे थे।
इस अमानवीय स्थिति को देख कर मानवीय संवेदना से युक्त स्वामी जी का हृदय अत्यंत द्रवित हुआ। उन्हेंने अपने अंतःप्रेरणा से आत्ममुक्ति के स्थान पर राष्ट्रमुक्ति-राष्ट्र को निर्धनता एवं अज्ञानता से मुक्ति दिलाने, दीन-दुखियों के उद्धार हेतु कार्य करने तथा राष्ट्र के पुनः निर्माण मे संलग्न होने का संकल्प किया और आजीवन मानवता की सेवा ही अपने जीवन का लक्ष्य निर्धारित किया |
8. अस्पृश्यता का विरोध व दलितों का उत्थान
स्वामी विवेकानन्द के हृदय में गरीबों एवं पददलितों के प्रति असीम संवेदना थी। उन्हेंने कहा, राष्ट्र का गौरव महलो में सुरक्षित नहीं रह सकता, झोपडियों की दशा भी सुधारनी होगी गरीबों यानी दरिद्रनारायण को उनके दीन-हीन स्तर से ऊँचा उठाना होगा। यदि गरीबों एवं शूद्रों को दीन-हीन रखा गया तो देश व समाज, 3/4 का कोई कल्याण नहीं हो सकता। विवेकानन्द की समाजवादी अन्तरआत्मा ने चीतकार कर कहा कि "मैं उस भगवान या धर्म पर विश्वास नहीं कर सकता जो ना तो विधवाओं के आँसू पोछ सकता हैं और न तो अनाथों के मूँह में एक टूकड़ा रोटी ही पहुँचा सकता है ।"
बाल विवाह का विरोध विवेकानन्द जी ने बाल विवाह की भर्त्सना की और कहा, "बाल विवाह मे असामयिक सत्तानोत्पति होती है और अल्पायु में संतान धारण करने के कारण हमारी स्त्रियाँ अल्पायु होती हैं, उनकी दुर्बल और रोगी संताने देश में भिखारियों एवं अपराधियों की संख्या बढ़ाने का कारण बनती है |
- आत्मविश्वास पर बल- विवेकानंद जी ने स्वयं पर विश्वास करने की प्रेरणा दी। आत्मविश्वास रखने पर ही व्यक्ति में कुछ करने की क्षमता विकसित होती है और आत्मविश्वासी समाज ही समस्त बाधाओं को लाँघकर ऊपर उठता हैं। विवेकानंद जी ने कहा "लोग कहते हैं- इस पर विश्वास करो, उस पर विश्वास अकादमिक अनुसंधान और विकास का अंतर्राष्ट्रीय जर्नल करो, मैं कहता- पहले अपने आप पर विश्वास करो अपने पर विश्वास करो। सर्वशक्ति तुम में है- कहो हम सब कर सकते हैं । "
- स्त्रियों को शिक्षा के समान अवसर- स्वामी जी ने नारी उत्थान के लिए स्त्री शिक्षण पर बल देते हुए कहा- "पहले अपनी स्त्रियों को शिक्षित करो, तब ये आपको बताएँगे की उनके लिए कौन से सुधार आवश्यक हैं, उनक मामले में बोलने वाले तुम कौन होते हो।" समाज स्त्री पुरूष दोनो से मिलकर बना है। दोनो की शिक्षा पर ही देश का पूर्ण विकास संभव हैं। पक्षी आकाश में एक पंख से नहीं उड़ सकते, उसी प्रकार देश का सम्यक् उत्थान मात्र पुरूषों की शिक्षा से संभव नहीं है। स्त्रियों को पुरूषों के समान ही शिक्षा प्राप्त करने का सुअवसर सुलभ होना चाहिए।"
- व्यवसायिक विकास पर बल- भारत एक निर्धन देश है और यहाँ कि अधिकांश जनता मुश्किल से ही अपनी मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति कर पाती है। स्वामी जी ने इस तथ्य एवं सत्य को हृदयंगम किया तथा यह अनुभव किया कि कोरे आध्यात्म से ही जीवन नहीं चल सकता जीवन चलाने के लिए कर्म आवश्यक है। इसके लिए उन्होंने शिक्षा के द्वारा मनुष्य को उत्पादन एवं उद्योग कार्य तथा अन्य व्यवसायों में प्रशिक्षित करने पर बल दिया |
8. निष्कर्ष
स्वामी विवेकानन्द का विचार, दर्शन और शिक्षा अत्यंत उच्चकोटि के है जीवन के मूल सत्यों रहस्यों और तथ्यों को समझने की कुँजी हैं। उनके शब्द इतने असरदार है कि एक मुर्दे में भी जान फूँक सकते हैं। वे मानवता के सच्चे प्रतीक थें, है और मानव जाति के अस्तित्व को जन साधारण के पास पहुँचाने का अभूतपूर्व कार्य किया। वे अद्वैत वेदांत के प्रबल समर्थक थे उन्होंने अपनी संस्कृति को जीवित रखने हेतु भारतीय संस्कृति के मूल अस्तित्व को बनाये रखने का आह्वान किया ताकि आने वाली भावी पीढ़ी पूर्ण संस्कारिक, नैतिक गुणों से युक्त न्यायप्रिय, सत्यधर्मी और आध्यात्मिक तथा भारतीय आदर्श के सच्चे प्रतीक के रूप में विश्व में अपना वर्चस्व बनाए रखें।
स्वामी विवेकानंद जी युग दृष्टा और युग सृष्टा थे। युगदृष्टा की दृष्टि से उन्होंने अपने समय की स्थिति को देखा समझा था और युगसृष्टा उस दृष्टि की उन्होंने नवभारत की नींव रखी थी। वे भारतीय धर्म दर्शन की व्यवस्था आधुनिक परिप्रेक्ष्य में करने, वेदांत को व्यवहारिक रूप देने एवं उसके प्रचार करने और समाज सेवा एवं समाज सुधार करने के लिए बहुत प्रसिद्ध है परंतु इन्होंने शिक्षा की आवश्यकता पर बहुत बल दिया और नवभारत के निर्माण के लिए तत्कालिन शिक्षा में सुधार हेतु अनेक सुझाव दिए। जवाहर लाल नेहरू जी ने भी उनके बारे में एक बार कहा था "भारत के अतीत में अटल आस्था रखते हुए और भारत की विरासत पर गर्व करते हुए भी विवेकानंद जी का जीवन की समस्याओं के प्रति आधुनिक दृष्टिकोण था और वे भारत के अतीत तथा वर्तमान के बीच एक प्रकार के संयोजक थे।"
हमारे राष्ट्र की आत्मा झुग्गी में निवास करती है अतः शिक्षा के दीपक को घर-घर ले जाना होगा, तभी तो सारा जन समाज प्रभुद्ध हो सकेगा। शिक्षा मंदिर के द्वार सभी व्यक्तियों के लिए खोल दिए जाये, जिससे कोई भी अनपढ़ न रहें। शिक्ष आजाद हो। दृढ़ लगन और कर्म की शिक्षा ही जन समूह को उचित शिक्षा दिला सकती है । शिक्षा के द्वारा देश के विकास को चर्म पर ले जाए और सर्व धर्म के द्वारा सच्ची मानवता को अपनाकर ईश्वर की सेवा करे। तो आइए हम एक होकर राष्ट्रीय नव चेतना जगाएँ, नए समाज एव नवयुग का निर्माण करें।
संदर्भ
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